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________________ शुभ संदेश पूज्य साध्वीजी श्री अमृतरसाश्रीजी ने "महोपाध्याय यशोविजय के दार्शनिक चिंतन के वैशिष्ट्य" पर शोध करके Ph.D. की डीग्री प्राप्त की है वो हमारे परिवार के लिए गौरव की बात है। जब उनका इन्टरव्यु अमदावाद में रखा था उसी समय हम भी वहाँ पहुंचे थे। तब हमको अहसास हुआ कि पू. गुरुवर्या जैसा लिखती है। वैसा बोलती भी है। जैसा उनका चिंतन है वैसा लेखन भी है। खुद परीक्षा लेने आये हुए प्रोफेसर भी साध्वीजी को सुनकर आश्चर्यमुग्ध हो गये थे / वो भी विचार करने लगे कि साध्वीजी की अब क्या परीक्षा ले ? उससे बडे बडे प्रोफेसरों के दिल दिमाग में भी साध्वीजी ने अपनी अलग छाप उपस्थित की / साध्वीजी की चिंतन, मनन, लेखन एवं कर्तृत्व शक्ति के पीछे अभिधान राजेन्द्रकोष निर्माता दादा गुरुदेव की असीमकृपा, वर्तमानाचार्य राष्ट्रसंत श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी के मंगल आशीर्वाद एवं उनकी गुरु मा भुवनप्रभाश्रीजी की कृपादृष्टि एवं गुरुबहेनो की प्रेरणा ही संबलरुप था / जो प्रतिपत साध्वीजी का शक्ति प्रदान करते थे। वैसे मुझे लिखना नही आता है। पर पता नहीं साध्वीजी को डॉ. की पदवी से विभूषित किया तब से उस खुशी की व्यक्त करने के लिए हाथ लालायित थे। ये मेरी जींदगी का प्रथम प्रयास है / ईसीलिए जैसा आया वैसा लिखा है / त्रुटि हो तो क्षमा प्रदान करना / .. इसी अवसर पर हमारे परिवार की और से साध्वीजी की आगे बढ़ने की भावना के.साथ. ढेर सारी शुभकामनाएं एवं बधाईयां देते है / आप आगे बढकर अपने जीवन को उज्जवल बनायें एवं अपना ज्ञान सब को बांटते हुए गुरु गच्छ की गरिमा बढायें इसी मंगल भावना के साथ... .. अरवीन्दजी जैन वापी शुभकामना दार्शनिक चिन्तन का अवलोकन चिंतक जीवन की प्रगति के सौपान तक पहुंचकर मंजिल पार करता है। ज्ञानवर्धक चिंतन करते-करते महापुरुषों के जीवन सागर में गोते लगाने वाला उनके ज्ञान रत्नों को अवश्य पाता है / श्रमणीवर्या अमृतरसा जी ने ज्ञान समुद्र में गोते लगा कर महापुरुष वाचक प्रवर श्री यशोविजय जी के जीवन के रत्नों को पाकर जो पुस्तक लेखन किया, वह अनुकरणीय है। यह भगीरथ प्रयत्न राष्ट्रसंत, शासन सम्राट्, जैनाचार्य प्रवर श्रीमद् विजय जयन्तसेनसूरीश्वर जी म.सा. की आज्ञानुवर्तीनी के गुरु आशीर्वाद पाकर यह वाचकप्रवर श्री यशोविजय जी के दार्शनिक चिन्तन का अवलोकन कर अन्य रूप में संघ, समाज, शासन एवं ज्ञान पीपासुओं को आत्मश्रेय का आधार दिया, जो सभी के लिये उपयोगी बनेगा / इसी तरह ज्ञान सागर के रत्नों को बांटने से प्रगति करें, यही हृदय से कामना करते हैं / इति - नित्यानन्द 20 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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