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________________ रूपी का अरूपी पर उपघात कर्म की मूर्तता की एवं आत्मा की अमूर्तता का संबंध तथा उपघात अनुग्रह आदि को लेकर विशेषावश्यक भाष्य में गणधरवाद में चर्चाएँ हुई हैं, वहाँ दूसरे गणधर अग्निभूति के शंका का समाधान करते हुए कहा कि जिस प्रकार रूपी ऐसे घट का, अरूपी ऐसे आकाश के साथ संयोगसंबंध है तथा अंगुली आदि द्रव्यों का संकोचन-प्रसारण आदि क्रियाओं के साथ समवाय संबंध है, उसी प्रकार आत्मा और कर्म का संबंध भी है।37 . इस प्रसंग में यह जिज्ञासा सहज ही हो जाती है कि जीव चेतनावान, अमूर्त पदार्थ है तथा कर्म पौद्गलिक मूर्त पिण्ड। तब मूर्त का अमूर्त आत्मा से बंध कैसे होता है? इस प्रश्न का समाधान जैनाचार्यों ने अनेकान्तात्मक शैली से दिया है। जैन दर्शन में संसारी आत्मा को आकाश की तरह सर्वथा अमूर्त नहीं माना गया है, उसे अनादि बन्धन बद्ध होने के कारण मूर्तिक भी माना गया है। बन्ध पर्याय में एकत्व होने के कारण आत्मा को मूर्तिक मानकर भी यह अपने ज्ञान आदि स्वभाव का परित्याग नहीं करता, इस अपेक्षा से उसे अमूर्तिक कहा गया है। इस प्रकार किसी दृष्टि से मूर्त होने से उसका मूर्त कर्मों के साथ बन्ध हो जाता है। जिस प्रकार घी मूलतः दूध में उत्पन्न होता है, परन्तु एक बार घी बन जाने के बाद उसे पुनः दूध रूप में परिणत करना असम्भव है अथवा जिस प्रकार स्वर्ण मूलतः पाषाण में पाया जाता है, परन्तु एक बार पाषाण से पृथक् होकर स्वर्ण बन जाने पर उसे उस प्रकार की किटिमा के साथ मिला पाना असम्भव है। उसी प्रकार जीव भी सदा ही मूलतः कर्मबद्ध पाया जाता रहा है, परन्तु एक बार कर्मों से सम्बन्ध छूट जाने पर पुनः इसका शरीर के साथ सम्बन्ध हो पाना असम्भव है। जीव मूलतः अमूर्तिक या कर्म रहित नहीं है, बल्कि कर्मों से संयुक्त रहने के कारण वह अपने स्वभाव से च्युत उपलब्ध होता है। इस कारण मूलतः अमूर्तिक न होकर कथंचित् मूर्तिक है। ऐसा स्वीकार कर लेने पर उसका मूर्त कर्मों के साथ बन्ध हो जाना विरोध को प्राप्त नहीं होता। हाँ, एक बार मुक्त हो जाने पर अवश्य वह सर्वथा अमूर्तिक हो जाता है और तब कर्म के साथ उसमें बन्ध होने का प्रश्न ही नहीं उठता। आत्म जिस शरीर/देह में रहता है वह मूर्त (रूपी) है। आत्मा यद्यपि अमूर्त है परन्तु संसारी जीव की आत्मा एकान्तिक अमूर्त नहीं है अतः जैसे स्वस्थ व्यक्ति में भी मदिरापान, विषभक्षण आदि का उपघात/प्रभाव होता है और शुद्ध पौष्टिक स्वानपान औषध आदि का भी प्रभाव देखा जाता है, वैसे अमूर्त आत्मा में भी मूर्त कर्म का प्रभाव परिलक्षित होता है। जैसे लोहे के गोले में अग्नि सम्पूर्ण व्याप्त होकर रहता है, वैसे आत्मा के सभी प्रदेशों में जीव को कर्म का संबंध होता है। यही बात आचार्य हरिभद्रसूरि कहते हैं कि-हे सौम्य! जिस प्रकार अमूर्त ऐसे आकाश के साथ घड़ा का संबंध है, द्रव्य अंगुली आदि का अमूर्त संकोचन, प्रसारण आदि क्रियाओं के साथ संबंध है, वैसा आत्मा और कर्म का संबंध है। मूर्त ऐसे कर्मों का अमूर्त से, अमूर्त ऐसे आत्मा पर अनुग्रह या उपघात वैसे घटित हो सकता है, क्योंकि कर्म तो मूर्त है, वर्ण वाला है, रूपी है और आत्मा अमूर्त है, वर्णादि रहित है, अरूपी है। जैसे आकाश अमूर्त है, उसको मूर्त ऐसे पत्थर से उपघात या फूल की माला से अनुग्रह अथवा अग्नि की ज्वाला से उपघात या चन्दन से अनुग्रह नहीं होता, वैसे ही मूर्त कर्मों का अमूर्त आत्मा पर उपघात या अनुग्रह नहीं होना चाहिए। 353 For Personal Jain Education International www.jainelibrary.org Private Use Only
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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