________________ लेकिन उनकी यह धारणा युक्तियुक्त नहीं है। आचार्य हरिभद्रसूरि इस तथ्य को दार्शनिक युक्तियों से स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मुतेणममुतिमओ उवधायाऽगुग्गहा वि जुज्जति। जह विण्णाणस्स इहं मइशपाणोसहादीहिं।।११० जिस प्रकार बुद्धि अमूर्त है फिर भी मदिरापान से उपघात और बाहमी आदि औषधि से अनुग्रह होता है, वैसे ही मूर्त कर्मों के द्वारा अमूर्त आत्मा को उपघात और अनुग्रह घटित होता है अर्थात् विज्ञान विवाद करने की इच्छा, धैर्य, स्मृति आदि आत्मा के अमूर्त धर्म हैं। उसको मदिरापान, विष और मच्छर आदि के भक्षण से उपघात होता है और दूध, शक्कर, घी से युक्त औषधि सेवन से अनुग्रह होता ही है। लेकिन पत्थर और पुष्पमाला के द्वारा अमूर्त ऐसे आकाश को उपघात या अनुग्रह नहीं होता है। यह जो दृष्टान्त दिया है, वह बराबर है, क्योंकि आकाश चैतन्य रहित निर्जीव द्रव्य है, यही सच्चा कारण है। जो चेतन होता है, उसे उपघात या अनुग्रह होता है। निर्जीव में ज्ञान संज्ञा का ही अभाव होता है। यही बात धर्मसंग्रहणी टीका,41 योगशतक की टीका एवं कम्मपयडी की टीका में है। अथवा संसारी आत्मा एकान्त में सर्वथा अमूर्त नहीं है, अनादि कर्म प्रवाह के परिणाम को प्राप्त किया हुआ है। आत्मा अग्नि और लोहपिण्ड के संबंध के सदृश कर्म के साथ मिला हुआ है और कर्म मूर्तिमान होने से आत्मा भी उससे कथंचित् अनन्य होने से अमूर्त होने पर भी कथंचित् मूर्त है। उससे आत्मा अमूर्त होने से अनुग्रह या उपघात नहीं होता है, ऐसी मान्यता नहीं रखनी चाहिए। अहवा गंतोऽयं संसारी सव्वहा अमुतोति। जमणादिकम्मसंतति परिणामावन्नरूपो सो।। उपरोक्त सम्पूर्ण तथ्य विशेषावश्यक भाष्य15 में भी स्पष्ट किया है। कर्म और पुनर्जन्म कर्म और पुनर्जन्म का चक्र साथ ही चलता है। प्राणी में जब तक राग-द्वेष है, कर्मबंधन होता . ही रहेगा और कर्म होता है तो पुनर्जन्म भी होना ही है। कहा है कर्मणः जन्म जन्मात् पुनः कर्म। पुनरपि जन्म पुनरपि मरण पुनरपि कर्म।। पाप-प्रवृत्ति से बांधे हुए कर्म के कारण भवान्तर में जीव को जन्म धारण करना पड़ता है और उस जन्म में जीव पुनः कर्म उपार्जन करता है और आगे पुनः जन्म धारण करता है। इस तरह कर्म के कारण जन्म और जन्म के कारण पुनः कर्म का विषमचक्र अनन्तकाल तक चलता रहता है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्वयं परमात्मा ने कर्म को जन्म-मरण का कारण बताया है कम्मं च जाई मरणस्स मूलं दुःखं जाइ-मरणं वयन्ति।46 अर्थात् कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही दुःख है। दिगम्बर ग्रंथ पंचास्तिकाय में भी इस विषय को इस प्रकार स्पष्ट किया है कि जीव संसार में स्थिर अर्थात् जन्म-मरण के चक्र में पड़ा हुआ है। उसके राग और द्वेष परिणाम होते हैं। उन परिणामों के कारण नये कर्म बंधते हैं। कर्मबंध के फलस्वरूप गतियों में जन्म लेना पड़ता है। 354 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org