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________________ नाम कर्म इस कर्म को चित्रकार की उपमा दी है, जैसे कि नाम कम्मचितिसमं। नामकर्म चित्रकार के समान होता है। जैसे चित्रकार अनेक चित्र बनाता है, वैसे ही नामकर्म भी जीव के अमूर्त होने पर भी उसके उसमें मनुष्य, पशु, पक्षी आदि अनेक रूपों का निर्माण करता है, जैसा स्थानांग टीका में कहा है जह चितयरो मिडगो अणेग रुवाई कुणइ सुवाई। सोहषामसोहणाइं चोकरवंम चोखेहिं वण्णेहिं।। तह नाम पि हुँ कम्मं, अणेग सूराइं कुणइ जीवस्स। सोहणम सोहणाई इट्टाणि ढाई लोयस्स।।250 यह कर्म जीव को अरूपी स्वरूप प्राप्त नहीं होने देता है। गोत्र कर्म इनका स्वभाव कुंभकार के समान है-गोदे कुलाल सरिस।" स्थानांग में जह कुम्भारो भंडारं कुणइ पुज्जेयराई लोयस्स। इस गोयं कुणइ जियं लीए पुज्जेयर मन्यं / / 23 जैसे कुम्भकार मिट्टी के छोटे-बड़े आदि विविध प्रकार के बर्तन बनाता है, उनमें से कुछ घड़े ऐसे . होते हैं, जिन्हें लोग कचरा बनाकर अक्षत चन्दन आदि से चर्चित करते हैं और कुछ ऐसे होते हैं, जिन्हें मदिरा रखने के कारण नीचे माने जाते हैं। इसी प्रकार जिस कर्म के कारण जीव का व्यक्तित्व प्रशंसनीय, पूजनीय बनता है, उसे उच्च कहते हैं और जिसका व्यक्तित्व अप्रशंसनीय, अपूजनीय बनता है, उसे नीच कहते हैं। इसमें मुख्य कारण गोत्रकर्म है। इस कर्म का स्वभाव ऐसा है कि वह जीव के अगुरुलघु गुण को प्राप्त नहीं होने देता है। अंतराय कर्म इस कर्म का स्वभाव भण्डारी के समान है-सिरि हरिअ समएअ। राजा की आज्ञा होते हुए भी यदि खजांची प्रतिकूल है तो धन प्राप्ति में बाधा आती है, ठीक उसी प्रकार आत्मा रूपी राजा को भी अनंतशक्ति होते हुए भी अंतराय कभी उसमें बाधा उत्पन्न करते हैं।" जह दाया दाणाई ण कुणइ भंडारिए विकूलंमि। एवं जेणं जीवो कम्मं तं अन्तरायं पि।।235 जैसे राजा की आज्ञा होने पर भी भण्डारी के प्रतिकूल होने पर याचक को इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होती है, वैसे ही अन्तराय कर्म भी जीव की इच्छित वस्तु की प्राप्ति में बाधक बन जाता है। अर्थात् यह जीव अनन्त दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य लब्धि वाला है। परन्तु अंतराय कर्म के उदय से जीव को अनन्त दान-लाभादिक कार्यों में अवरोध उत्पन्न करता है।256 इस प्रकार आठ कर्मों के स्वभाव को संक्षेप में समझाया है, जो यथार्थ है। 352 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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