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________________ जीवं चार्थ साधनं चान्तरा एति पततीत्यन्तरायम्। इस कर्म के कारण जीव का सामर्थ्य केवल कुछ अंशों में ही प्रगट होता है। मनुष्य में संकल्प विकल्पशक्ति साहस, वीरता आदि की अधिकता या न्यूनता दिखती है, उसका कारण अंतराय कर्म है। आचार्य हरिभद्र ने श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका में भी इसी प्रकार की व्याख्या की है। दानादि विघ्न का नाम अंतराय है। इस अन्तराय के कारणभूत कर्म को अन्तराय कहा जाता है अथवा अन्तरा इति अन्तरा-इस निरुक्ति के अनुसार जो जीव और दानादि के मध्य में अन्तरा अर्थात् व्यवधान रूप से उपस्थित होता है, उसे अंतराय कर्म जानना चाहिए। अभिधान राजेन्द्र कोश में कहा गया है कि जो दाता और प्रतिगाहक के अन्तर/मध्य/बीच में विघ्न/बाधा हेतु आता है, उपस्थित होता है, जो जीव को दानादि में व्यवधान पहुंचाता है, उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। तद्योग्य पुद्गल कार्मण वर्गणाओं का कर्मरूप में आत्मा के द्वारा ग्रहण करना कर्म का आठवें भेद स्वरूप अन्तराय कर्म है।85 डॉ. सागरमल जैन के अनुसार अभीष्ट की उपलब्धि में बाधा पहुंचाने वाला कारण को अंतराय कर्म कहते हैं।186 . उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में अंतरायकर्म को परिभाषित करते हुए कहा * है कि जीवं दानादिकं चान्तरा व्यवधानापादनायैति गल्तक्षीत्यन्तरायं / / / जीव एवं दानादि के बीच में अंतराय रूप कारण बने वो अंतराय कर्म है।188 अन्तराय कर्म की उत्तरप्रकृति .. अन्तराय कर्म जीव को लाभ आदि की प्राप्ति के शुभ कार्यों को करने की क्षमता, सामर्थ्य में . अवरोध खड़ा करता है। अन्तराय कर्म अपना प्रभाव दो प्रकार से दिखाता है-1. प्रत्युत्पन्न विनाशी, 2. विहित आगमिक पथ। 89 प्रत्युत्पन्न विनाशी अंतराय कर्म के उदय से प्राप्त वस्तुओं का भी विनाश हो जाता है और विहित आगमिक पथ अन्तराय भविष्य में प्राप्त होने वाली वस्तु की प्राप्ति में अवरोधक है। अंतराय कर्म पांच प्रकार का परमात्मा द्वारा कहा गया है चरिमं च पंचभेदं पन्नतं वीयरागे हिं। तं दाणलाभ भोगोवभोग विरियंतशइयं जाणं / / 190 1. दानान्तराय कर्म, 2. लाभान्तराय कर्म, 3. भोगान्तराय कर्म, 4. उपभोगान्तराय कर्म, 5. वीर्यान्तराय। उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में भी अंतराय कर्म का भेद बताया है दानलाभ भोगोपभोगवीर्यान्तराय भेदात् पंच्चोतर प्रकृतयः।। उत्तराध्ययन सूत्र,192 तत्त्वार्थ सूत्र,193 प्रथम कर्मग्रंथ,194 अभिधान राजेन्द्रकोश,195 में भी ये दानलान भेद हैं दानान्तराय-दान की इच्छा होने पर भी दान नहीं किया जा सके। लाभान्तराय-किसी कारण से कोई प्राप्ति में बाधा आना। भोगान्तराय-भोग में बाधा उपस्थित होना। 349 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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