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________________ उपभोगान्तराय-उपभोग की सामग्री होने पर भी उपभोग करने में असमर्थता। वीर्यान्तराय-शक्ति के होने पर भी पुरुषार्थ में उस शक्ति का उपयोग नहीं करना।।95 दानादि की परिभाषा कर्मप्रकृति में भी मिलती है।197 अंतराय कर्म बंधन के कारण दान आदि में बाधा उपस्थित करने से पापों में रत रहने से मोक्ष मार्ग में दोष बताकर विघ्न डालने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है। 98 तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार भी विघ्न या बाधा डालना ही अन्तराय कर्म के बंध का कारण है। जैनेन्द्र सिद्धान्तकोश के अनुसार भी दानादि में विघ्न डालना अन्तराय कर्म का आश्रव है।200 आठों कर्मों की उत्तर-प्रकृतियों के भेद उत्तराध्ययन सूत्र,01 तत्त्वार्थसूत्र,202 प्रशमरति,205 कर्मग्रंथ, हरिभद्रसूरि रचित श्रावक प्रज्ञप्ति,205 धर्मसंग्रहणी206 एवं उपाध्याय यशोविजय विरचित कम्मपयडी टीका207 में मिलते हैं। इन्हीं उत्तर-प्रकृतियों का विवेचन तत्त्वार्थभाष्य,208 उत्तराध्ययन टीका,200 प्रशमरति टीका, प्रथम कर्मग्रंथ टीका, धर्मसंग्रहणी टीका, श्रावक प्रज्ञप्ति टीका एवं कम्मपयडी टीका एवं प्रज्ञापना में किया है। इन आठ कर्मों का वर्णन हरिभद्रसूरि रचित प्रज्ञापना सूत्र की टीका, तत्त्वार्थ टीका, मलयगिरि रचित धर्मसंग्रहणी की टीका में मिलता है तथा कर्म के स्वभाव का दृष्टांत नवतत्त्व में भी मिलता है। इस प्रकार आठ कर्मों के भेद एवं प्रभेदों व उनमें लक्षण का संक्षेप में दिग्दर्शन किया गया। कर्म विचारणा के प्रसंग में उनका सैद्धान्तिक रूप अभिव्यक्त किया गया है। कर्मों का स्वभाव आठ कर्मों के भिन्न-भिन्न स्वभाव होते हैं और भिन्न-भिन्न गुण को रोकता है-.. 1. ज्ञानावरण-इस कर्म का स्वभाव कपड़े की पट्टी जैसा है। यदि आँख पर मोटे, पतले कपड़े की जैसी पट्टी बंधी होगी तो कुछ भी दिखाई नहीं देता है, ठीक उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म आत्मा की निर्मल दृष्टि को आवृत कर देता है। तदनुसार पदार्थ को विशेष रूप से नहीं देखने देता है। ज्ञान दृष्टि पर पड़ा आवरण आत्मा को स्वभाव से विभाग की ओर धकेल देता है, आत्मा के स्वाभाविक ज्ञानगुण को आवृत कर देते हैं। 15 एसिं जं आवरणं पडुव्व च चक्खुस्स तं तहा वरणं।16 कर्म रूप पट के समान ज्ञानरूप चक्षु से कुछ भी ज्ञात नहीं होता है। इस कर्म से जीव का अनन्त ज्ञानगुण आवृत्त बना हुआ रहता है। जिस प्रकार देवता की मूर्ति पर ढका हुआ वस्त्र देवता को आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म को आच्छादित किये रहता है।” 2. दर्शनावरण-इसका स्वभाव द्वारपाल के समान है। विति समं दर्शनावरण। जिस प्रकार द्वारपाल द्वार पर ही रोककर व्यक्ति को राजा के दर्शन नहीं करने देता अर्थात् द्वारपाल की अनुमति के बिना कोई भी व्यक्ति राजा से नहीं मिल सकता, जिस प्रकार द्वारपाल दर्शनार्थी को राजदर्शन से 350 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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