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________________ उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में गोत्रकर्म की व्याख्या करते हुए कहा है किगूयते शब्धते उच्चावचैः शबदैर्यतगोत्रं उच्चनीचकुलोत्पत्यभिव्यऽय पर्यायविशेषः तइयाकवेधं कर्मापि गोत्रं। यद्या गूयते शब्धते उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मातगोत्र / जिस आत्मा को उच्च-नीच शब्द से संबोधन करते हैं, उच्च-नीच की कुल उत्पत्ति से व्यस्त होता, पर्याय विशेष या भोगने योग्य या उच्च-नीच के विपाक से वैध ऐसा कर्म गोत्र कर्म कहलाता है। गोत्र कर्म का उत्तर-भेद गोत्रकर्म दो प्रकार का है। वह इस प्रकार है गोयं टुविहं भेयं उच्चागोयं तहेव नीयं च / / उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी टीका में गोत्रकर्म के भेद बताते हुए कहा है गोत्रस्य द्वै उत्तर प्रकृति-उच्चैगोत्र नीचैगोत्र च। गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ हैं-उच्च गोत्र, नीच गोत्र। उत्तराध्ययन,170 प्रज्ञापना, कर्मप्रकृति, तत्त्वार्थ, कर्मग्रन्थ, धर्मसंगहणी,175 अभिधान राजेन्द्रकोश,176 में भी दो भेद बताये हैं। उच्च गोत्र-जिस कर्म के उदय से जीव उच्च कुल में जन्म लेता है, उसे उच्चगोत्र कहते हैं। उच्च गोत्र देश, जाति, कुल, स्थान, मान, सम्मान, ऐश्वर्य के उत्कर्ष का कारण होता है। जिसके उदय से जीव अज्ञानी एवं विरूप होने पर भी उत्तमकुल के कारण पूजा जाता है, उसे उच्चगोत्र नामकर्म कहते हैं। 78 उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में भी बताया है कियदुदयादुतमजातिकुलबलतपौरुपैश्वर्य श्रुतसत्काशम्युत्यानासनप्रदानाज्जलप्रग्रहा दि संभवस्तटुच्चैगौत्र। उच्च गोत्र कर्म के आठ उपभेद हैं-जाति कुल बल रूप तय श्रुत लाभ ऐश्वर्य।180. नीच गोत्र-जिस कर्म के उदय से जीव नीच कुल में जन्म लेता है, उसे नीचगोत्र नामकर्म कहा जाता है, यथा-चाण्डाल, मच्छीमार आदि / उपाध्याय यशोविजय ने कम्मपयडी की टीका में बताया है कि यदुदयात् पुनर्जानादिसंपन्नोऽपि निन्दा लभते हीन जात्यादिसंभवं च तन्नीचै गोत्रं / 182 गोत्र नामकर्म बंधन के कारण तत्त्वार्थ सूत्र के अनुसार पर-निन्दा, आत्मप्रशंसा, दूसरों के सद्गुणों का आच्छादन और असद्गुणों का प्रकाशन-यह सब नीच-गोत्र कर्म-बन्ध के कारण हैं। इससे विपरीत पर-प्रशंसा, स्व-निंदा, सद्गुण प्रकाशन, असद्गुण गोपन, नम्रवृत्ति और निरभिमानताये उच्चगोत्र के बन्ध के हेतु हैं। अंतराय कर्म जो कर्म आत्मा की दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यरूप शक्तियों का विघात करता है, दानादि में विघ्नरूप होता है अथवा मनोवांछित वस्तु की प्राप्ति नहीं होने देता 348 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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