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________________ त्रस दशक-1. त्रस, 2. बादर, 3. पर्याप्त, 4. प्रत्येक, 5. स्थिर, 6. शुभ, 7. सुभग, 8. सुस्वर, 9. आदेय, 10. यश। स्थावर दशक-1. स्थावर, 2. सूक्ष्म, 3. अपर्याप्त, 4. साधारण, 5. अस्थिर, 6. अशुभ, 7. दुर्भग, 8. दुस्वर, 9. अनादेय, 10. अपयश। इसी प्रकार नामकर्म की उपयुक्त 103 (75 पिण्डप्रकृतियाँ + 8 प्रत्येक प्रकृतियाँ + 10 त्रसदशक + 10 स्थावर दशक)-उत्तर प्रकृतियाँ हैं। इन्हीं प्रकृतियों के आधार पर प्राणियों के शारीरिक वैविध्य का निर्माण होता है।157 संक्षेप में नामकर्म की सभी प्रकृतियों का दो में समावेश हो सकता है-शुभ नामकर्म और अशुभ नामकर्म। . नामकम्मे दुविहे पण्णते तं जहा शुभणामे चेत्र अशुभ णामे चेव।।58 . शुभः पुण्यस्थ। अशुभ पापस्थ।।59 शुभ प्रकृतिया पुण्य और अशुभ प्रकृतियाँ पाप रूपात्मक होती हैं। नामकर्म के बंधन के कारण शुभ नामकर्म-जैनागमों में अच्छे व्यक्तित्व की उपलब्धि के चार कारण माने गए हैं1. काय ऋजुता (शरीर की सरलता), 2. भाव ऋजुता (मन या विचारों की सरलता), 3. भाषा ऋजुता (वाणी की सरलता), 4. अहंकार एवं मात्सर्य रहित जीवन (अविसंवादन योग)।160 अशुभ नामकर्म के कारण-मन, वचन, काया की वक्रता और अहंकार-मात्सर्यवृत्ति या असामंजस्यपूर्ण जीवन। इन कारणों से प्राणी को अशुभ नामकर्म प्राप्त होता है। मिथ्यादर्शन, चुगलखोरी, चित्त की अस्थिरता, झूठे माप-तोल आदि रखने से अशुभ नामकर्म का बन्ध होता है।162 इस प्रकार उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि शरीर के कण-कण की रचना करनेवाला नामकर्म ही . है, जो चित्रकार की भांति चित्र बनाता है और उसमें रंग-रूप आकर्षण, विकर्षण, गति आदि पच्चीकारी के द्वारा तस्वीर को पूर्ण करता है। गोत्र कर्म - लोक व्यवहार संबंधी आचरण को गोत्र माना गया है। जिस कुल में लोक पूज्य आचरण की परम्परा है, उसे उच्च गोत्र कहते हैं तथा जिसमें लोकनिन्दित आचरण की परम्परा है, उसे नीचगोत्र नाम दिया है। इन कुलों में जन्म दिलाने वाला कर्म गोत्रकर्म कहलाता है। जो कर्म जीव के उच्च, नीच कुल में जन्म लेने का निमित्त बनता है, जिस कर्म के उदय से पूज्यता या अपूज्यता का भाव पैदा होता है, जीवं उच्च या नीच कहलाता है, उसे गोत्र कर्म कहते हैं। अभिधान राजेन्द्र कोश में गोत्रशब्द के कुल, समस्तागमाधार, पर्वत, बोध, कानन, क्षेत्र, मार्ग, छत्र संघ, वित्त, धन आदि अर्थ दर्शाये हैं। जिसके द्वारा जीव उच्च या नीच कहा जाए, जो उच्च या नीच कुल को ले जाता है, ऐसा उच्च-नीच का ज्ञान कराने वाला कर्म गोत्र कर्म है।165 347 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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