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________________ * अनेकान्त, नय और समन्वय ईसा पूर्व तीसरी शती में दृष्टिवाद आगम प्रायः लुप्त हो गया। उसके बचे हुए कुछ अंशों के आधार पर आचार्य समन्तभद्र और आचार्य सिद्धसेन ने विविध नयों से विविध दर्शनों में समन्वय स्थापित किया। समन्तभद्र ने 'आप्तमीमांसा' में सामान्य, विशेष, नित्य-अनित्य, भाव-अभाव आदि विरोधीवादों में सप्तभंगी की योजना कर समन्वय की पृष्ठभूमि तैयार की। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने 'सन्मतिप्रकरण' में परदर्शनों की नयों से तुलना की, सापेक्षदृष्टि से समन्वय स्थापित किया। सांख्यदर्शन का द्रव्यार्थिक नय में और बौद्ध दर्शन का पर्यायार्थिक नय में समावेश किया। जैन दर्शन को मिथ्या-दर्शनों का समूह बताया। उनकी दृष्टि में सभी नय मिथ्यादृष्टि हैं। यदि ये निरपेक्षता से अपने पक्ष को प्रस्तुत करते हैं, एक-दूसरे से सापेक्ष होते हैं तो सभी नय सम्यग् बन जाते हैं। __ सन्मतितर्क प्रकरण की रचना ने एक बार पुनः नयवाद के विकास की नई दिशाएँ खोल दी। जितने वचनपथ हैं, उतने नयवाद हैं और उतने ही परसमय हैं। सिद्धसेन के इस उदार दृष्टिकोण के आधार पर जैन आचार्यों ने नय परम्परा को बहुत विकसित किया। जिनभद्रगणि तो समन्वय के शिखर तक पहुंच गये-जितने भी परदर्शन हैं, वे सम्यक्त्व के उपकारी हैं, इसलिए ये स्वदर्शन ही हैं मिच्छतसमूहमयं सम्मतं जं च तदुवगारम्मि वट्टति परसिध्यंतो तस्स तओ ससिद्धन्तो।।27 उपाध्याय यशोविजय ने बौद्धों में ऋजुसूत्रनय, वेदान्त और सांख्य के संग्रहनय, न्यायवैशेषिक के नैगमनय, शब्दाद्वैतवाद के शब्दनय को सापेक्षदृष्टि से ग्रहण कर जैन दर्शन को सर्वसंग्रही दर्शन के रूप में प्रस्तुत किया है।258 ... मल्लिषेण ने व्यवहारनयाभास के उदाहरण के रूप में चार्वाक मत को प्रस्तुत किया है।259 इस समन्वयपरक दृष्टि की व्यापकता ने ही संभवतः एक नई समस्या को जन्म दिया। कुछ विद्वान् जैन दर्शन को मिथ्यादर्शनों का समवाय मात्र समझने लगे। विभिन्न नयों को विभिन्न मतों का संकलन मानने लगे। जैन दर्शन की स्वतंत्र और मौलिक आधारभिति को न समझने के कारण ऐसा हुआ। जब अन्य सब दर्शन मिथ्या हैं तो उनका संग्रही दर्शन सम्यक् कैसे हो सकता है? यह प्रश्न भी यत्र-तत्र उभरने लगा। तत्त्वार्थभाष्य और आप्तमीमांसा में इनका तृप्तिदायक समाधान सन्निहित है। . विभिन्न नय विभिन्न दर्शनों के अभ्युपगमों का संकलन नहीं है और न ही स्वेच्छा से उत्पन्न किये गये पक्षग्राही विकल्प हैं। ये नय अनन्तधर्मात्मक ज्ञेय पदार्थ के विषय में होने वाले विभिन्न अध्यवसाय हैं।260 मिथ्या का समूह मिथ्या ही होगा। नय मिथ्या नहीं है। वे निरपेक्ष हैं, इसलिए मिथ्या हैं। वे सापेक्ष या समुदित होते ही वास्तविक हो जाते हैं।। सब नय समुदित होकर ही पूर्ण बनता है। अनेकान्त का स्वरूप यही है। महावीर ने आग्रहमुक्त शैलीप्रदान की, इसीलिए गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी ने गाया आग्रहहीन गहन चिन्तन का द्वार हमेशा खुला रहे। कण-कण में आदर्श तुम्हारा पय मिश्री ज्यों घुला रहे / / 262 306 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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