________________ किया। किन्तु जैन दार्शनिकों में से किसी का जब तक यशोविजय नहीं हुए, इस ओर ध्यान नहीं गया। फल यह हुआ कि 13वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी के अंत तक भारतीय दर्शनों की विचारधारा का जो नया विकास हुआ, उससे जैन दार्शनिक साहित्य वंचित रह गया। 17वीं शताब्दी के प्रारम्भ में वाचक यशोविजय ने काशी की ओर प्रयाण किया और सर्वशास्त्र वैशारध प्राप्त कर उन्होंने जैन दर्शन में भी नवीन न्यायशैली के अनेक ग्रंथ लिखे और अनेकान्तवाद के ऊपर दिये गए आक्षेपों का समाधान करने का प्रयत्न किया। उन्होंने अनेकान्त व्यवस्था49 लिखकर अनेकान्तवाद की पुनः प्रतिष्ठा की। अष्ट्रसहस्त्री और शास्त्रवार्ता समुच्चय नामक प्राचीन ग्रंथों के ऊपर नवीन शैली की टीका लिखकर उन दोनों ग्रंथों को आधुनिक बनाकर उनका उद्धार किया। जैन तर्कभाषा और ज्ञानबिन्दु लिखकर जैन प्रमाणशास्त्र को परिष्कृत किया। उन्होंने नयवाद को अनेकान्तवाद का आध जारभूत सिद्धान्त है, के विषय में नयप्रदीप, नयरहस्य, नयोपदेश आदि अनेक ग्रंथ लिखे। इसी युग में श्रीमद् विमलदास ने अनेकान्तवाद के स्वरूप को यौक्तिक धरातल पर स्पष्ट करने हेतु सप्तभंगीतरंगिणी250 जैसे नव्य न्याय की भाषा में चर्चा जटिल ग्रंथ की रचना की। नय और स्यात् पद वचनात्मक नय को नयवाक्य या सद्वाद कहा जाता है। भगवती आदि में नयवाक्यों के साथ स्यात् पद का प्रयोग हुआ है। आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभूस्तोत्र51 में स्यात् शब्द से लांछित नय को . इष्ट फलदायी कहा है। मल्लिषेण और मलयगिरी के अनुसार स्यात् शब्द जुड़ते ही नयवाक्य, प्रमाणवाक्य. बन जाता है।52 प्रमाण सर्वनयात्मक है। आचार्य अकलंक ने प्रमाणवाक्य और नयवाक्य दोनों में स्यात् शब्द का प्रयोग किया है।255 प्रमाणवाक्य-स्यात् जीव एव। नयवाक्य-स्यात् अस्ति एव जीवः। हेमचन्द्र ने नय के लिए सत् शब्द का प्रयोग किया हैसदेव सत् स्यात् सदिनि त्रिधार्यो, मीयेत दुर्नीतिनयप्रमाणैः / सत् एवं यह दुर्नय है, सत् नय है और स्यात् सत् प्रमाण है। आचार्य सिद्धसेन आदि ने नय के तीन भंग माने हैं-अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य। आचार्य अकलंक आदि ने नय की सप्तभंगी को स्वीकृति दी है। विशेषावश्यकभाष्यं25 और तिलोयपण्णति256 में नयप्रमाण का मूल्यांकन इस भावभाषा में किया गया है जो निक्षेप, नय और प्रमाण से विधिपूर्वक अर्थ की समीक्षा परीक्षा नहीं करता, उसे अयुक्त, युक्त और युक्त अयुक्त प्रतीत होता है। नयविशारद व्यक्ति अपने विषय में प्रयुक्त नय को सत्य जानता है, दूसरे के द्वारा प्रयुक्त नय से पराङ्मुख होता है। इसलिए यह ज्ञेय में सम्मूढ़ नहीं होता और न सिद्धान्तों की आशातना करता है। 305 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org