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________________ न्यायप्रदीप में भी समभिरूढ़ नय को परिभाषित करते हुए कहा है-जहाँ शब्द का भेद है, वहाँ अर्थ का भेद अवश्य है। इस प्रकार बताने वाला समभिरूढ़ नय है-पर्यायशब्दभेदेन भिन्नार्थस्याधिरोहणात् नयः समभिरूढः स्यात्पूर्वपच्चास्य निश्चयः / / नयचक्रसार में भी समभिरूढ़ का वर्णन करते हुए कहा है कि-एकार्थावलान्वि पर्यायशब्देशु नियुक्ति भेदेन भिन्नामर्थ समभिरोहन समभिरूढः / अर्थात् एक पदार्थ को ग्रहण कर उसमें एकार्थवाची जितने नाम होते हैं, उतने ही पर्यायभेद होते हैं, उतने ही नियुक्ति, व्युत्पत्ति और अर्थभेद होते हैं। इस भिन्नता का सम्यक् प्रकार से आरोह करें अर्थात् सम्पूर्ण अर्थ सहित हो, उसे समभिरूढ़ नय कहते हैं। उपाध्याय यशोविजय ने भी जैन तर्कपरिभाषा में समभिरूढ़ को व्याख्यायित करते हुए कहा है-पर्यायशब्देषु निरुक्तिभेदेन भिन्न अर्थ समभिरोहन् समभिरूढः / 235 अर्थात् पर्यायवाची शब्दों में भी व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद मानने वाले नय को समभिरूढ़ नय कहते हैं। 7. एवंभूत नय यहाँ सर्वसूक्ष्मगाही दृष्टिकोण है। यह क्रियाभेद के आधार पर अर्थभेद को स्वीकार करता है। इसमें शब्दप्रयोग के वैशिष्ट् से अर्थ के वैशिष्ट्य का और अर्थ के वैशिष्ट्य से शब्द के वैशिष्ट्य का बोध होता है। आचार्य तुलसी ने एवंभूत नय को परिभाषित करते हुए लिखा है क्रियापरिणतमर्थ तच्छादवाच्य स्वामुर्वन्नेवंभूत।236 क्रिया की परिणति के अनुरूप ही शब्द प्रयोग को स्वीकार करने वाले नय को एवंभूत नय कहा जाता है। जैसे कोई साधु भिक्षा के लिए जाता है तभी वह भिक्षु कहलाने का अधिकारी है। मौन करते समय ही व्यक्ति वाचंयम होता है और तपस्या में प्रवृत्त साधु को ही तपस्वी कहते हैं। ... स्वामी पूज्यपाद ने एवंभूत नय का विवेचन करते हुए लिखा है कि जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है, उसी रूप का निश्चय करनेवाले नय को एवंभूत नय कहा जाता है। अतः जिस शब्द का जो वाच्य है, उसके अनुरूप क्रिया के परिणमन काल में ही उस शब्द का प्रयोग करना संगत है, अन्य समय विभागों में नहीं। जैसे जिस समय इन्द्र अपनी आज्ञा का प्रयोग कर रहा हो, ऐश्वर्यवान हो, उसी समय इन्द्र है। यदि वह भगवान की वन्दना करने जा रहा है तो उस समय इन्द्र नहीं कहना चाहिए। एक व्यक्ति जब अध्यापन करवाता है, तभी अध्यापक कहना चाहिए। घर पर खाना खाते समय उसे अध्यापक, गुरु आदि शब्दों से युक्ति नहीं करना चाहिए। इस प्रकार शब्द और अर्थ की सूक्ष्म विश्लेषण करता है। जिस पदार्थ का जिस शब्द से बोध कराया जाता हो, उस पदार्थ में उसके बोधक शब्द के व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थानुसार क्रिया जिस काल में प्राप्त होती है, तब ही उस पदार्थ को उस शब्द के द्वारा संबोधन करना, सत्यरूप में ग्रहण करना एवंभूत नय है।27 जैसे राजा जिस समय राजचिह्न मुकुटादि धारण कर राजसभा में राजसिंहासन पर बैठकर राज्य संबंधी कार्य कर रहा हो, उसी समय उसे राजा कहना अन्यत्र नहीं।238 जिस समय किसी देवयज्ञ के द्वारा जब वह पुरुष या बालक दिया गया हो, उसी समय उसका नाम देवदत्त या यज्ञदत्त हो सकता है, अन्यत्र नहीं। इस प्रकार एवंभूत नय प्रत्येक वस्तु को जिस समय वह अपने नाम के अनुसार क्रिया करता हो, उसी समय उसे स्वीकार करता है, अन्यथा नहीं करता। 302 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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