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________________ स्तुति और स्तोत्र-दोनों शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में करते हैं पर उनका अर्थ भिन्न है। स्तुति का अर्थ है-एक श्लोक वाला भक्तिकाव्य। स्तोत्र का अर्थ है-बहुत श्लोकों वाला भक्तिकाव्य। शब्दनय द्वारा गृहीत पर्याय ऋजुसूत्र नय द्वारा गृहीत पर्याय से शुद्धतर होती है अतः वह उससे विशुद्धतर है। शब्दनय काल आदि के भेद से अर्थभेद मानता है पर जब उन्हें सर्वथा भिन्न ही मान लिया जाता है, वह शब्द नयाभास है। शब्दनय उसे सापेक्षदृष्टि से स्वीकार करता है। 6. समभिरूढ़ नय पर्यायनिरुक्ति भेदनार्थ भेदकृत समभिरूढः / विभिन्न पर्यायवाची शब्दों के निरुक्त के भेद से अर्थभेद का स्वीकार करने वाले नय को समभिरूढ़ नय कहा जाता है। जैसे भिक्षाशील होता है उ भिक्षु कहते हैं, जो वाणी का संयम करता है उसे वाचंयम कहते हैं, जो तपस्या करता है उसे तपस्वी कहते हैं जबकि शब्दकोश में ये तीनों एक-दूसरे के पर्यायवाची हैं, एकार्थक हैं। शब्दनय निरुक्त का भेद होने पर भी अर्थ के अभेद को स्वीकार करता है। समभिरूढ़ नय निरुक्त भिन्न होने पर अर्थ के अभेद को स्वीकार नहीं करता, अतः वह शब्दनय से विशुद्धतर है। एक वस्तु का संक्रमण दूसरी वस्तु में नहीं होता। प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में निष्ठ होती है। स्थूलदृष्टि से हम अनेक वस्तुओं के मिश्रण या सहस्थिति को एक मान लेते हैं किन्तु ऐसी स्थिति में भी प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूप में रहती है। विज्ञान के अनुसार एक ही समय में आकाश में एक साथ ऑक्सीजन, कार्बन-डाई-ऑक्साइड, नाइट्रोजन आदि कितनी गैसें एक साथ रहती हैं, पर क्या ये मिलकर एक हो जाती है। तात्पर्य यह है कि जो वस्तु जहाँ आरूढ़ है, उसे वहीं प्रयोग करना चाहिए। वैज्ञानिक . विश्लेषण की दृष्टि से यह नय बहुत उपयोगी है। शब्द और अर्थ का एक-दूसरे से गहरा संबंध है। शब्द प्रयोग के अनुरूप अर्थबोध हो और अर्थभेद के अनुरूप शब्द प्रयोग हो-यह यथार्थवाद की एक महत्त्वपूर्ण कसौटी है। समभिरूढ़ नय का आधार भी यही कसौटी है। जो शब्द विभिन्न अर्थों को छोड़कर प्रधानता से किसी एक अर्थ में रूढ़ हो जाता है, वह समभिरूढ़ कहलाता है, जैसे-गौ शब्द के पृथ्वी, गाय, वचन आदि अनेक अर्थ हैं पर वह गाय के अर्थ में रूढ़ है। दूसरे दृष्टिकोण से समान लिंग, वचन, कारक, काल वाले शब्दों में व्युत्पत्तिभेद से अर्थभेद को स्वीकार करने वाला अभिप्राय समभिरूढ़ नय है, जैसे-घट, कुट और कुम्भ। यह नय पर्यायवाची शब्दों में भी निरुक्ति भेद से अर्थभेद ग्रहण करता है, जैसे-शक्र, पुरन्दर, इन्द्र आदि शब्द इन्द्र के वाचक होने पर भी समभिरूढ़ नय इसे भिन्न रूप से ग्रहण करता है। समभिरूढ़ नय के अनुसार घट शब्द घट के लिए प्रयुक्त होगा और कलश का विवाह आदि मांगलिक कार्यों का मंगल कलश होगा, अतः शब्दनय की दृष्टि में अभिन्न दिखाई देने वाले घट और कलश समभिरूढ़ नय की दृष्टि में भिन्न हैं। इसी प्रकार नृपति, भूपति, राजा इत्यादि जितने भी पर्यायवाची शब्द हैं, सब में अर्थभेद है। नयवाद में समभिरूढ़ नय की व्याख्या करते हुए कहा है-सम्यक्प्रकारेण अभिसमीपं (अर्थस्य) रोहतीति समभिरूढः / / अच्छी तरह जो अर्थ के समीप जाता है, उसे समभिरूढ़ नय कहते हैं, जैसे-जिन, अर्हत्, तीर्थंकर आदि परमात्मा के लिए उपयोगी शब्द हैं। लेकिन यह नय उनका भिन्न अर्थ निकालता है। इस नय के अनुसार-जयन्ति रागादीन् इति जिनः। अर्हति पूजामित्यर्हन। तीर्थ चतुर्विधसंघ प्रथमगणधरं वा करोति स्थापयतीति तीर्थंकर / / इसी तरह दूसरे शब्दों के बारे में भी समझना। 301 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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