________________ में पर्याय की और पर्यायार्थिक नय में द्रव्य की गौणता रहती है। इसलिए वो दोनों मत एक ही मुख्यता और एक ही गौणता के आधार पर होने से उभयगत अविरुद्ध हैं। शत न्यायग्रंथप्रणेता न्यायविशारद यशोविजय महाराज नयरहस्य में इस प्रसंग का उल्लेख करते हुए दिखा रहे हैं-उक्तं सूत्रं त्वनुयोगांशमादाय वर्तमानावश्यकपर्याये द्रव्यपदोपचारात् समाधेयमिति। 5. शब्द नय हमारे व्यवहारों का महत्त्वपूर्ण आधार है-शब्द। शब्द के आधार पर अर्थ का ग्रहण करने वाला ज्ञाता का अभिप्राय है-शब्दनय। यह भिन्न लिंग, वचन, काल, कारक आदि से मुक्त शब्द के भिन्न-भिन्न अर्थ स्वीकार करता है। यह शब्द, रूप और उसके अर्थ का नियामक है, इसीलिए कहा गया है काल, लिंग वचनादि से वाचक है भिन्नार्थ। शाब्दिक संयोजन सुघड, बने शब्दनय सार्थ / / 224 व्याकरण की लिंग, वचन आदि की अनियामकता को यह प्रमाण नहीं करता, इसका अभिप्राय है। , पुल्लिंग का वाच्य अर्थ स्त्रीलिंग का वाच्य अर्थ नहीं बन सकता। पहाड़ का जो अर्थ है, वह पहाड़ी शब्द से व्यक्त नहीं हो सकता। इसी प्रकार नद और नदी का अर्थ भी एक नहीं हो सकता, क्योंकि जहाँ लिंगभेद होता है, वहाँ अर्थभेद भी होता है, जैसे पुत्र और पुत्री में। एकवचन का जो वाच्यार्थ है, वह बहुवचन का वाच्यार्थ नहीं हो सकता। यदि ऐसा होता तो मीना छात्रा है के स्थान पर मीना छात्राएँ हैं भी प्रयोग शुद्ध गिना जाता। शब्द के लिंग, काल, कारक, वचन आदि के भेद के अर्थभेद पूर्वक बोध कराने वाले नय को शब्दनय कहते हैं। शब्दनय लिंगादि के भेद से अर्थ भेद करता है, परन्तु पर्यायवाची शब्दों को समान * * मानता है। उदाहरण- (क) लिंग-बालः बाला। काल-बभूव, भवनि, भविष्यति। कारक-बालकेन, बालकाय इत्यादि। वचन-तटः तटी तटः आदि में करना। (ख) घट, कलश, कुम्भ आदि को समान मानना। नयचक्रानुसार में शब्द नय की व्याख्या बताते हुए कहते हैं कि काल, लिंगादि भेद से अर्थ का भेद होता है, उसी भेद धर्म से वस्तु को मानें, उसे शब्दनय कहते हैं।225 नयवाद में शब्दनय को परिभाषित करते हुए कहा है शप्यते वचनगोचरी क्रियते वस्तुयेन स शब्दः।। जिसके द्वारा पदार्थ विषय-वचन का विषयभूत होता है, उसे शब्दनय कहते हैं। उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्कपरिभाषा में शब्दनय का विवेचन करते हुए कहा है कालादि भेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः। 228 यह दृष्टि शब्द प्रयोग के पीछे छिपे इतिहास को जानने में बड़ी सहायक है। संकेत काल में शब्द, लिंग आदि की रचना प्रयोजन के अनुरूप बनती है। वह रूढ़ जैसी बाद में होती है। सामान्यतः हम 300 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org