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________________ न्यायप्रदीप में एवंभूत नय का विवेचन करते हुए कहा है कि तक्रियापरिणामोऽर्थस्तथैवेति विनिश्चयात्। एवंभूतेन नीयते क्रियांतरपराङ्मुखः / 40 जिस शब्द का अर्थ जिस क्रियारूप हो, उस क्रिया में लगे हुए पदार्थ को ही उस शब्द का विषय करना एवंभूत नय है। __नयवाद में एवंभूत नय का वर्णन करते हुए कहते हैं कि-जिस शब्द का जिस अर्थ में उपयोग किया हो, उसी अर्थ में अनुभव होता है। उनके लिए जिस शब्द का उपयोग किया जाता है, वह इस नय की मान्यता है। नयचक्रसार में एवंभूत नय को परिभाषित करते हुए कहा है कि-एवं भिन्न शब्द वाच्यत्वाच्छब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्त मृतक्रिया विशिष्टमर्थ वाच्यत्वे नाभ्युपगमच्छन्नेवभूतं / 5 शब्दनय की प्रवृत्ति निमित्तक क्रिया-विशिष्ट अर्थयुक्त अर्थात् वस्तु वाच्यधर्म से प्राप्त हो, कारण-कार्य धर्म सहित हो, उसे एवंभूत नय कहते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी ने जैन तर्क परिभाषा में एवंभूत नय का लक्षण बताते हुए कहा है कि-शब्दानां स्वप्रवृत्तिनिमित्तभूत क्रिया विष्टमर्थ वाच्यत्वेनाभ्युपगच्छनेवभूत। शब्द की प्रवृत्ति में _निमित्तभूत क्रिया से युक्त अर्थ ही शब्द का वाच्य है, ऐसा एवंभूत नय का मत है। संक्षेप में भ्रान्ति का निरसन करने के लिए नयवाद का विकास आवश्यक है। कभी-कभी एक ही ग्रन्थ से एक विषय के परिप्रेक्ष्य में भिन्न-भिन्न सन्दर्भो में भिन्न-भिन्न प्रतिपादन उपलब्ध होते हैं। यदि व्यक्ति उनके पीछे छिपी अपेक्षा को नहीं जानता तो यथार्थ का बोध नहीं कर पाता, भ्रान्त हो जाता है। नयविधि को जानने वाला व्यक्ति अपने विचार की सत्यता को जानते हुए अन्य विचारों के प्रति भी सापेक्ष दृष्टिकोण देखता है। अतः वह ज्ञेय के विषय में सम्मूढ़ नहीं बनता और सिद्धान्त की आशातना भी नहीं करता। इस प्रकार नयवाद सम्यक्त्व परिशुद्धि का मार्ग है। माइल्लधवल के अनुसार नय का ज्ञान यथार्थ बोध का माध्यम है। यथार्थज्ञान से दृष्टिकोण सम्यक् बनता है। सम्यक् बोध और सम्यक् दृष्टि का चारित्र आराधना का हेतु है। अतः परस्पर रूप से ,नय मोक्ष का उपाय है। उपर्युक्त सातों नय परस्पर सापेक्ष दृष्टिकोण हैं। इनमें एक ही वस्तु के विभिन्न रूपों को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से ग्रहण किया जाता है। इनका विचार क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। अतः विषय की व्यापकता भी क्रमशः अल्पतर होती जाती है। संक्षेप में- . * नैगम नय संकल्पग्राही अभिग्रह अभिप्राय है। * संग्रह नय सत्ता मात्र को अपना विषय बनाता है। * व्यवहार नय भेदग्राही है। * ऋजुसूत्र नय कारक आदि भिन्न वस्तु भी वस्तु को अभिन्न मानता है। * शब्द नय व्युत्पत्ति का भेद होने पर भी पर्यायवाची शब्दों की अभिन्नता को स्वीकार करता है। * समभिरूढ़ नय क्रिया का भेद होने पर भी वस्तु में अभेद को स्वीकार करता है। * एवंभूत नय क्रिया के आधार पर भिन्न अर्थ को स्वीकार करता है अतः वह सर्वाधिक सूक्ष्म है। 303 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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