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________________ ग्रहण करता है, सम्पूर्ण वस्तु का नहीं। अतः प्रमाण से उसका भेद स्पष्ट है। प्रमाण सकलादेश है, उसमें सब धर्मों को मुख्य स्थान मिलता है। नैगमनय विकलादेश है, इसमें सामान्य मुख्य होने पर विशेष गौण रहता है और विशेष मुख्य होने पर सामान्य गौण हो जाता है। 'चेतन में आनन्द है' यहाँ आनन्द अर्थात् पर्याय या भेद की मुख्यता है और आनन्दी जीव की बात ही छोड़िये, इसमें जीव अर्थात् द्रव्य की मुख्यता है, इसी प्रकार गुण और गुणी, अवयव और अवयवी, जाति और जातिमान, क्रिया और कारक आदि की व्यंजना का प्रतिपादक है-नैगमनय। इसी बात की पुष्टि करते हुए उपाध्याय यशोविजय जैन तर्कपरिभाषा में लिखते हैं सामान्यविशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नैगमः। अर्थात् सामान्य, विशेष आदि अनेक धर्मों का प्रतिपादन करने वाले अध्यवसाय को नैगमनय कहते हैं। नैगमनय का दूसरा आधार है-लोक व्यवहार। लोक व्यवहार में शब्दों के जितने और जैसे अर्थ माने जाते हैं, यह उन सबको ग्रहण करता है। नैगमनय का तीसरा आधार है-संकल्प। नैगमनय मात्र वक्ता है, संकल्प को ग्रहण करता है।188 नैगमनय की दृष्टि से किसी कथन के अर्थ का निश्चय उस संकल्प अथवा साध्य के आधार पर किया जाता है, जिससे वह कथन किया गया है। नैगमनय संबंधी प्राक्कथनों में वक्ता की दृष्टि साध्य की ओर होती है। यह भाव और अभाव-दोनों को ग्रहण करता है। संकल्प अर्थात् आरोप। भूतकाल बीत चुका, भविष्य अभी अनुत्पन्न है, फिर भी उनमें वर्तमान का आरोप कर दिया जाता है। भूतकाल का वर्तमान में आरोप नहीं होता तो आज न कोई महावीर का जन्मदिवस मना सकता है और न तुलसी का। रसोइया खाना बनाने बैठा है, फिर भी वह कहता है-रोटी पकाई है। यह कथन भी भावी नैगमनय है। हमारी व्यावहारिक भाषा में भी ऐसे अनेक कथन होते हैं जब हम अपने भावी संकल्प के आधार पर ही वर्तमान व्यवहार का प्रतिपादन करते हैं, जैसे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी को उसको भावी लक्ष्य . की दृष्टि से इंजीनियर कहा जाता है। इसी प्रकार क्षमता, योग्यता आदि के आधार पर अकवि को कवि, अविद्वान् को विद्वान् कह दिया जाता है। इस नय में वस्तु को जानने का मार्ग एक नहीं बल्कि अनेक हैं, वो नैगम नय। यह नय वस्तु के सामान्य एवं विशेष दोनों धर्मों को प्रधान मानते हैं। ___सामान्य विशेष का ग्राहक होने से जिसको अनेक प्रकार के ज्ञान के द्वारा जाना जाए, वह नैगमनय है अथवा निश्चित अर्थबोध में जो कुशल है, वह नैगमनय है अथवा जिसमें बोध का मार्ग एक नहीं अपितु अनेक है, वह नैगमनय है अथवा जो अर्थबोध में कुशल है, वह नैगमनय है अथवा महासत्तारूप सामान्य-विशेष ज्ञान के द्वारा एक प्रकार के मान से जो नहीं जाना जाता, वह नैगमनय है।189 अथवा निगम का अर्थ जनपद (देश) करने पर लोक में देश-विशेष में जो शब्द जिस अर्थ-विशेष के लिए नियत है, वहाँ पर उस अर्थ शब्द के संबंध को जानने का नाम नैगमनय है।190 जैसे मिट्टी के घड़े को घी भरने हेतु ले जाने पर उसे घी के घड़े ले जा रहा हूँ-ऐसा कहना, उस प्रदेश विशेष में घड़ा, कुंभ, कलशादि कहना। अनुयोगद्वार सूत्र में प्रस्थक दृष्टान्त के द्वारा इसमें अविशुद्ध, विशुद्ध और विशुद्धतर आदि अनेक रूपों का सुन्दर निरूपण हुआ है। सिद्धसेन दिवाकर ने इसकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार नहीं करके षड्नय की परम्परा प्रारम्भ की। 295 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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