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________________ अभिधान राजेन्द्रकोश में नैगमनय के विभिन्न ग्रंथों के अनुसार अनेक प्रकार के भेद दर्शाये गए हैं, यथा-विशेषावश्यक भाष्य में इसेक तीन भेद किये गए हैं। 1. सर्वविशुद्ध-निर्विकल्पमहासत्ताग्राहक। 2. विशुद्धाविशुद्ध-गाय, बैल, बछड़े आदि के लिए गोत्व सामान्य ग्राहक। 3. सर्वविशुद्ध विशेषवादी-गाय को गाय और बैल को बैल कहना। रत्नाकरावतारिका में धर्म-धर्मी की अपेक्षा से नैगमनय के तीन भेद किये गये1971. धर्म-आत्मा सचेतन है। 2. धर्मी-वस्तु पर्यायवाद द्रव्य होता है। 3. धर्म-धर्मी-क्षणमात्र सुखी विषयासक्त जीव। तत्त्वार्थसूत्र में नैगमनय के दो भेद दर्शाये गए हैं।971. सर्व परिक्षेपी समग्रग्राही-घट मात्र को ग्रहण करना। 2. देश परिक्षेपी-देशग्राही-घट को मिट्टी का या तांबे का इत्यादि ग्रहण करना। 2. संग्रह नय एक शब्द के द्वारा पदार्थों का ग्रहण करना संग्रहनय है-एकत्वेन विशेषाणां ग्रहणं संगहो नयः। विशेषादि भेद रहित सामान्य मात्र को ग्रहण करने वाला संग्रहनय है। यह सामान्य-विशेष आदि सब को एक साथ ग्रहण करता है। ज्ञाता का यह अभिप्राय जो वस्तु में विद्यमान अनेक धर्मों में एकत्व स्थापित करता है, अनेक वस्तुओं के भेद को गौण कर अभेद की स्थापना करता है। आचार्य तुलसी ने संग्रहनय की परिभाषा करते हुए लिखा है-अभेदग्राही संग्रहः। जैसे अनेक स्त्री-पुरुष खड़े हैं, अभेद का ग्रहण करते हुए मनुष्य खड़े हैं, कह सकते हैं। एक स्थान पर मनुष्य, पशु, पक्षी, सब एकत्रित हैं-संग्रहनय से जीव हैं, कह सकते हैं। जीव और अजीव सब द्रव्यों में भी अस्तित्व धर्म की समानता है अतः अभेद की अपेक्षा से उन्हें सत् में ग्रहण किया जा सकता है। इसीलिए परसंग्रह नय की विवक्षा में विश्व एक है, क्योंकि अस्तित्व की दृष्टि से कोई भिन्न नहीं है-विश्वमेकं सतोऽविशेषात्। वस्तुतः परसंग्रहनय की द्रव्यार्थिक नय की शुद्ध प्रकृति है। अवान्तर सामान्य की सत्यता को दृष्टिमध्य रखते हुए अपरसंग्रहनय को भी संग्रहनय कहते हैं। वह द्रव्य, पर्याय, गुण, जीव आदि अपर सत्ताओं को ग्रहण करता है। इस प्रकार भेद रहित समस्त पर्यायों या विशेषों को अपनी जाति के अविरोध पूर्वक एक मानकर सामान्य धर्म के आधार पर सच को ग्रहण करने वाली दृष्टि संग्रहनय है। आगमों में निर्दिष्ट 'एगे आया', 'एगे दण्डे' आदि प्रतिपादन इसी दृष्टि के सूचक हैं। उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्क परिभाषा में संग्रहनय को बताते हुए कहा है-सामान्यमात्रग्राही परामर्शः सडग्रहः।सामान्य मात्र का ग्रहण करना आशय संग्रहनय है। अर्थात् सर्वेकदेशग्रहणं सडग्रहः। 98 सर्वसामान्य एकदेश द्वारा पदार्थों का संग्रह करना, वो संग्रहनय है। संग्रहनय की दृष्टि से विचार करने पर अद्वैतवादी परम्पराओं में प्राप्त होने वाले अभेद के प्रतिपाद भेद को मिथ्या मानकर उसका अपलाप करते हैं, अतः वे दुर्नय या संग्रहनयाभास है। भेद के बिना अभेद का भी अस्तित्व नहीं, अतः भेद का अपलाप करने से अभेद का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाता है, वस्तु का यथार्थ बोध नहीं होता। संग्रहनय सामान्यग्राही दृष्टि है। 296 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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