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________________ सप्तनयों का स्वरूप नय की मुख्य दृष्टियां क्या हो सकती हैं, यह हमने देखा। अब हम उसके भेदों का विचार करेंगे। आचार्य सिद्धसेना ने लिखा है कि वचन के जितने भी प्रकार या मार्ग हो सकते हैं, नय के उतने ही भेद हैं। जितने नय के भेद हैं, उतने ही मत हैं। इस कथन को यदि ठीक माना जाए तो नय के अनन्त प्रकार हो सकते हैं। इन अनन्त प्रकारों का वर्णन हमारी शक्ति की मर्यादा के बाहर है। मोटे तौर पर नय के कितने भेद होते हैं. यह बताने का प्रयत्न जैन दर्शन के आचार्यों ने किया है। वैसे तो द्रव्य और पर्याय में सारे भेद समा जाते हैं, द्रव्य और पर्याय को अधिक स्पष्ट करने के लिए अवान्तर भेद किये गए हैं। इन भेदों की संख्या के विषय में कोई निश्चित परम्परा नहीं है। जैन दर्शन के इतिहास को देखने पर हमें तीन परम्पराएँ मिलती हैं। एक परम्परा सीधे तौर पर नय के सात भेद करती है। ये सात भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ एवं एवंभूत। आगम और दिगम्बर ग्रंथ इस परम्परा का पालन करते हैं। दूसरी परम्परा नय के छः भेद मानती है। इस परम्परा के अनुसार नैगम स्वतंत्र नय नहीं है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने इस परम्परा की स्थापना की है। तीसरी परम्परा तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य की है। इस परम्परा के अनुसार मूल रूप में नय के पांच भेद हैं-नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और शब्द। इनमें से प्रथम अर्थात् नैगमनय के देश-परिक्षेपी और सर्व-परिक्षेपीइस प्रकार के दो भेद हो जाते हैं तथा अन्तिम अर्थात् शब्दनय को सांप्रत, समभिरूढ़ एवं एवंभूतऐसे तीन भेद हैं। सात भेदों वाली परम्परा अधिक प्रसिद्ध है। अतः नैगमादि सात भेदों के स्वरूप का विवेचन है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कथनीय वस्तु के मुख्यतः दो भेद हैं-द्रव्य और पर्याय। अतः उसके आधार पर द्रव्य को मुख्य बनाकर जानना द्रव्यार्थिक नय है और पर्याय को मुख्य बनाकर जानना * पर्यायार्थिक नय है। सत्य के दो प्रकार हैं-वास्तविक सत्य और औपचारिक सत्य। वास्तविक सत्य को मुख्य मानने वाला नय है-निश्चयनय। औपचारिक सत्य को मुख्य मानने वाला नय है-व्यवहारनय। अभिप्राय को व्यक्त करने के साधन दो हैं-अर्थ और शब्द। अतः इस विवक्षा से नय के दो भेद हैं-शब्दनय और अर्थनय। इस प्रकार भिन्न आधारों से चिंतन करने पर नय के भिन्न प्रकार हो जाते हैं पर जैन दर्शन में नय के सात भेद सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में इन सातों को एक-एक गाथा के द्वारा निरूपित किया गया है। वे सात भेद हैं-1. नैगम नय, 2. संग्रह नय, 3. व्यवहार नय, 4. ऋजुसूत्र नय, 5. शब्द नय, 6. समभिरूढ़ नय, 7. एवंभूत नय। 1. नैगम नय सात नयों में सर्वप्रथम नैगमनय आता है। आर्यरक्षित ने नैगमनय की निरुक्तिपरक व्याख्या करते हुए लिखा है-णेगेहिं माणेहिं मिणइति णेगमस्स निरुति। अर्थात् नैगमनय अनेक दृष्टिकोणों से वस्तु को जानता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह वस्तु का उभयरूप-सामान्यरूप और विशेषरूप से ग्रहण करता है। इसलिए भिक्षुन्यायकर्णिमा में इसकी परिभाषा की गई-भेदाभेदग्राही नैगम।186 नैगमनय भेद और अभेद-सामान्य और विशेष दोनों अंशों का संयुक्त रूप में निरूपण करता है। अतः सामान्य विशेष को स्वतंत्र पदार्थ मानने वाली वैशेषिक दृष्टि से उसकी भिन्नता स्पष्ट है। वह वस्तु के एक अंश का 294 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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