________________ आधार संवेदना और समाज का आधार विनिमय है। अनेकान्त के आधार पर व्यक्ति एवं समाज की समाज एवं सापेक्ष मूल्यवत्ता की स्वीकृति ही इन समस्याओं से मुक्ति प्रदान कर सकती है। व्यावहारिक पक्ष में अनेकान्तवाद व्यवहार का क्षेत्र एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ अनेकान्तदृष्टि के बिना काम नहीं चलता है। परिवार के एक ही पुरुष को कोई पिता तो कोई पुत्र, कोई काका तो कोई दादा, कोई भाई, कोई मामा आदि नामों से पुकारता है। एक व्यक्ति के सन्दर्भ में विभिन्न पारिवारिक संबंधों की इस संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता है।) ___अनेकान्त वह सूत्र प्रदान करता है, जिससे भविष्य की सम्भावनाओं का आकलन कर अतीत से 'बोधपाठ लेते हुए वर्तमान में जीया जा सकता है। अनेकान्त भविष्य को अस्वीकार नहीं करता है, भूतकाल के पर्यायों को ध्यान में रखता है और दोनों को स्वीकार कर वर्तमान पर्याय के आधार पर व्यवहार का निर्णय करता है। जो व्यक्ति अनेकान्त को जानता है, वह कभी दुःखी नहीं होता। उसका लाभ-अलाभ, जय-पराजय, निंदा-प्रशंसा, जीवन-मरण सभी के प्रति समभाव रहता है। वह अपना सन्तुलन नहीं खोता है। 1डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि आर्थिक क्षेत्र में भी अनेक ऐसे प्रश्न हैं, जो किसी एक तात्विक 'एकान्तवादी अवधारणा के आधार पर नहीं सुलझाए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि हम एकान्त रूप से यह मान लें कि प्राणी प्रतिसमय परिवर्तनशील है, भिन्न हो जाता है तो आधुनिक शिक्षाप्रणाली में अध्ययन, परीक्षा, परिणाम आदि में एकरूपता नहीं होगी। यदि व्यक्ति क्षण-क्षण बदलता ही रहता है तो अध्ययन करने वाला, परीक्षा देने वाला और प्रमाण-पत्र प्राप्त करने वाले छात्र भिन्न-भिन्न होते। इस प्रकार व्यवहार के क्षेत्र में असंगतियां होंगी। इसके विपरीत यह मान लें कि व्यक्ति में परिवर्तन नहीं होता, तो उसके प्रशिक्षण की व्यवस्था निरर्थक होगी। इस प्रकार अनेकान्त दृष्टि ही व्यवहार जगत् ‘की समस्याओं का निराकरण करती है। इसी प्रकार अनेकान्तदृष्टि के आधार पर जन-कल्याण को लक्ष्य में रखते हुए विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के मध्य संतुलन स्थापित करके पूरे विश्व में शांति की स्थापना की जा सकती है।। अनेकान्तदृष्टि के कौटुम्बिक संघर्ष को भी टालकर शान्तिपूर्ण वातावरण बनाया जा सकता है। प्रबन्ध के क्षेत्र में बिना अनेकान्तदृष्टि को अपनाए सफल नहीं हुआ जा सकता है। यंत्रों की अवधारणा में अनेकान्त आज प्रौद्योगिकी का बहुत विकास हुआ है। मनुष्य प्रस्तर युग से परमाणु युग में पहुंच गया है। विज्ञान के विकास ने आज मनुष्यों को सुख-सुविधाओं के अनेक साधन प्रदान किये हैं। इस तथ्य को ओझल नहीं किया जा सकता। किन्तु विज्ञान का सदुपयोग बहुत कम हुआ है। उसका प्रयोग विध्वंसात्मक कार्यक्रमों में अधिक हो रहा है। यंत्रों ने मानवजाति को राहत से ज्यादा तनाव की जिन्दगी प्रदान की है। सारांश यह है कि समूची अर्थव्यवस्था, राजनैतिक एवं समाजतन्त्र यदि केवल एकांकी और भौतिक उपलब्धियों के आधार पर खड़े किये जायेंगे तो सर्वविनाश के सिवाय और कुछ चारा नहीं है। आज के समाजशास्त्रियों एवं अर्थशास्त्रियों ने कृत्रिम भूख को बढाकर पूरे मानव समाज को संकट में डाल दिया। आवश्यकता की पूर्ति को उचित माना जा सकता है किन्तु कृत्रिम क्षुधा की शान्ति होना असम्भव है। कहा गया है 280 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org