SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 351
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्तवाद का महत्त्व : समाज-व्यवस्था में अनेकान्त विश्व का कोई भी व्यक्ति, वस्तु या पदार्थ या दृष्टान्त अनेकान्तवाद के बिना नहीं घटता है। ऐसा जैन दर्शन का मानना है। अन्य दर्शनकारों ने भी किसी-न-किसी रूप में अनेकान्तवाद का आशरा लिया ही है जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहा वा निव्वडई। तरस भुवणेककगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स / / व्यावहारिक जगत् में अनेकान्तवाद के महत्त्व को दर्शाते हुए सिद्धसेन दिवाकर भी कहते हैंमैं उस अनेकान्तवाद को नमस्कार करता हूँ, जिसके बिना इस संसार का व्यवहार भी संचालित नहीं हो सकता है। सत्य प्राप्ति की बात तो दूर, अनेकान्त के अभाव में समाज, परिवार आदि के सम्बन्धों का निर्वाह भी सम्यक् रूप से नहीं हो सकता है। अनेकान्त सबकी धुरी में है। इसलिए वह समूचे जगत् का एकमात्र गुरु और अनुशास्ता है। सारा सत्य और सारा व्यवहार उसके द्वारा संचालित हो रहा है। अनेकान्त त्राण है, शरण है, गति है और प्रतिष्ठा है। जैनदर्शन का प्राणतत्त्व अनेकान्त है। जैसे अनेकान्त का दार्शनिक स्वरूप एवं उपयोग है, वैसे ही जीवन के व्यावहारिक पहलुओं से जुड़ी समस्याओं का समाधान भी हम अनेकान्त के आलोक में प्राप्त कर सकते हैं। भगवान महावीर का उद्घोष रहा-आचार में अहिंसा और विचार में अनेकान्त का प्रकाश हो। अहिंसा अनेकान्त का ही व्यावहारिक पक्ष है। अनेकान्त अर्थात् वस्तु को सत्य के अनेक पहलुओं से देखना एवं समझना। वीतराग, सम्यग्दर्शन-ये अनेकान्त के ही समानार्थी हैं। सत्य एक रूप है पर उसका प्रतिपादन अनेक रूप से हो रहा है। सत् की दृष्टि से देखने पर वह प्रतिपादन परस्पर सर्वविरोधी प्रतीत होता है किन्तु अनेकान्त के आलोक में देखने से समस्या समाहित . होती है। व्यक्ति पारिवारिक, धार्मिक, राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय आदि अनेक सम्बन्धों में जुड़ा होता है। सामाजिक संबंधों का यही जाल जब अनेक रीतियों और नियमों से एक व्यवहार में परिवर्तित हो जाता है तब इसी व्यवस्था को हम समाज कहते हैं। समाजवादी दार्शनिकों का सिद्धान्त यह है कि व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। मानव विकास के इतिहास से व्यक्ति ने समाज के द्वारा ही प्रगति की है, अतः समाज ही मुख्य है। व्यक्तिवादी दार्शनिकों के अनुसार मनुष्य समाज से बाहर का प्राणी है अथवा रह सकता है। इस मान्यता में यह विचार निहित है कि मनुष्य समाज में प्रवेश करने से पूर्व व्यक्ति विशेष है। ये अपनी सम्पति, अधिकार, जीवन की सुरक्षा अन्य किसी इच्छित उद्देश्य की पूर्ति के लिए सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करते हैं। एक विचारधारा ने व्यक्ति को सर्वोपरि स्थान दिया है तो दूसरों ने समाज को। अनेकान्तवाद व्यक्ति एवं समाज दोनों की सापेक्ष व्याख्या करता है। व्यक्ति में वैयक्तिकता एवं सामाजिकता-इन दोनों के मूल सन्निहित हैं। समाज में भी व्यक्ति की वैयक्तिकता तथा उनका अभिव्यक्त होना व्यक्ति की सामाजिकता है। अतः व्यक्ति और समाज एक हैं और भिन्न भी हैं। व्यक्ति का 279 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy