________________ ही त्याग करना चाहिए, किन्तु जो प्रत्यक्ष में वस्तु दृष्टिगोचर हो रही है, उसका अपहृत करना संगत नहीं है। प्रत्ययवादी दार्शनिकों का यह अभ्युपगम विचारणीय है कि भेद और अभेद एक-दूसरे का परिहार करके ही वस्तु में रहते हैं अतः इन दोनों में कोई एक ही वस्तु में रह सकता है। अस्तित्व-नास्तित्व एक साथ वस्तु में रहते हुए स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं अतः प्रत्ययवादी दार्शनिकों का अभ्युपगम यथार्थ से परे है। यदि यह कहा जाए कि उनमें परस्पर विरोध है, अतः ये साथ में नहीं रहते हैं, यह कथन भी तर्कपूर्ण नहीं है, क्योंकि विरोध अभाव के द्वारा साध्य होता है। अनुपलब्धि हेतु से घोड़े के सिर पर सींग नहीं है, यह माना जा सकता है किन्तु अस्तित्व एवं नास्तित्व का सह-उपलम्भ हो रहा है तब उनका निषेध नहीं किया जा सकता। वस्तु के स्वरूप में हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। * वस्तु सामान्य-विशेषात्मक होती है। इस प्रकार का वस्तु का मिश्रित स्वरूप जैन के अतिरिक्त नैयायिक, सांख्य एवं मीमांसक ने भी स्वीकार किया है। किन्तु इस तात्विक सिद्धान्त के तार्किक पक्ष का विस्तार केवल जैनों ने ही किया है, जिसके परिणामस्वरूप विचार के नियमों के मूल्यांकन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन हुआ। अनेकान्त वस्तु के स्वरूप का निर्माण नहीं करता। वस्तु का स्वरूप स्वभाव से है। यह ऐसा क्यों है? इसकी व्याख्या नहीं की जा सकती। 'स्वभावे तार्किका भग्ना' वस्तु का जैसा स्वरूप है, उसकी व्याख्या करना अनेकान्त का कार्य है। वस्तु अनेकान्तात्मक है। उसमें अस्तित्व-नास्तित्व आदि धर्मों का सहावस्थान है। किसी भी प्रमाण के द्वारा उनकी सहावस्थिति का अपलाप नहीं किया जा सकता। उभयात्मक वस्तु हमारी प्रतीति का विषय बनती है। अतः यह प्रमाण सिद्ध है कि वस्तु विरोधी धर्मों से युक्त है। अनेकान्त वस्तु के . विरोधी धर्मों में समन्वय के सूत्रों को खोजने वाला महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। दार्शनिक एवं व्यावहारिक जगत् की समस्याओं का समाधायक है। प्रतिपाद्य के निष्कर्ष 1. समग्र भारतीय चिन्तन प्रत्यवाद एवं वस्तुवाद-इन दो धाराओं में समाविष्ट हो जाते हैं। 2. जैन दर्शन का नय सिद्धान्त वस्तुवाद एवं प्रत्ययवाद-दोनों का समन्वय करता है। 3. पूर्वमीमांसा सम्मत वस्तु त्रयात्मक है अतः उसकी जैन वस्तुवाद से सदृशता है। 4. वस्तु में विरोधी धर्मों का सहावस्थान ही अनेकान्त का तात्विक आधार है। 5. जैन सम्मत वस्तु की नित्यानित्यात्मकता ही जात्यन्तर है। 6. एकान्त एवं निरपेक्ष सामान्य विशेष में आने वाले दोष जात्यन्तर वस्तु में नहीं आ सकते। 7. वस्तु की व्यवस्था संवेदन से ही हो सकती है। 8. विचार के नियम अनुभव सापेक्ष होकर ही सत्य की व्याख्या कर सकते हैं। 9. सभी दर्शनों ने किसी-न-किसी रूप में एकत्र विरोधी धर्मों को स्वीकार किया है। 10. सभी दार्शनिकों को विरोधी धर्मों की व्यवस्था सापेक्षता के आधार पर ही करनी पड़ती है। 11. अनेकान्त विरोधी धर्मों में समन्वय के सूत्रों का अन्वेषण करता है। 278 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org