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________________ In surveying the field of Indian philosophy from the point of view of the problem of the nature of reality we may adopt as our guiding principle the following five-fold classifications which includes within its scope the different school of philosophical thought in term of their adherence unequal or equal proportion. डॉ. रज्जैया ने सुखलालजी के विभाग को ही स्वीकृत किया है। इन्होंने भर्तृप्रपंच, भास्कर, रामानुज और निम्बार्क दर्शन का समाहार तृतीय विभाग में तथा मध्य के द्वैतवाद को चतुर्थ विभाग में रखा है। इन दोनों विद्वानों ने पूर्वमीमांसा दर्शन का स्पष्ट रूप से किसी विभाग में समावेश नहीं किया है। पूर्वमीमांसा के प्रमेय विवेचन का अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि उसकी प्रमेय मीमांसा जैन वस्तुवाद के सदृश है। पूर्व मीमांसा भी वस्तु को उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्य युक्त त्रयात्मक स्वीकार करता है। वस्तु की त्रयात्मकता की सिद्धि से वह वर्धमान, रुचक एवं स्वर्ण का उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। उपाध्याय यशोविजय एवं जैन दार्शनिकों ने भी वस्तु की त्रयात्मकता की सिद्धि में शब्दभेद से यही उदाहरण प्रस्तुत किया है, जो अनेकान्त व्यवस्था एवं श्लोकवार्तिक के सन्दर्भ में विमर्शनीय है। श्लोकवार्तिक में वस्तु को अनेकान्तवाद कहा है। जैन चिन्तक भी वस्तु को अनेकान्तात्मक कहते हैं। . . उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर पूर्व मीमांसा को पांचवें विभाग से समाहित किया जा सकता है। यद्यपि यह सुखलालजी का मन्तव्य है कि पूर्वमीमांसा का उत्पाद, स्थिति, भंगवाद चेतन का स्पर्श करता हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। इस अवधारणा को यदि स्वीकार किया जाए तो इस दर्शन का अन्तर्भाव सांख्य वाले तीसरे विभाग में होता है किन्तु उपलब्ध तथ्यों में पूर्व मीमांसा के अनुसार चेतन में परिमाण नहीं होता, ऐसा उल्लेख प्राप्त नहीं होता अपितु श्लोकवार्तिक में स्वर्ण की अवस्थाओं में भेद की तरह पुरुष की अवस्थाओं में भिन्नता का उल्लेख किया गया है। - आत्मा न अपनी अवस्थाओं से सर्वथा भिन्न है, न सर्वथा अभिन्न ही। कथंचित् भिन्न भी है, . कथंचित् अभिन्न भी। जैसे कुण्डल स्वर्ण से न सर्वथा भिन्न होता है, न सर्वथा अभिन्न ही।" इससे ज्ञात होता है कि चेतन में परिणमन हो रहा है, अतः इस दर्शन का समावेश पंचम विभाग में करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है। निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि सभी भारतीय पाश्चात्य दर्शनों का वर्गीकरण नित्य-अनित्य, 'भेद-अभेद आदि तरह की वस्तु के अन्य धर्म सामान्य-विशेष, एक-अनेक, द्रव्य-पर्याय आदि के आधार पर भी किया जा सकता है। जैन दर्शन में वस्तु का स्वरूप अद्वैत वेदान्त ने द्रव्य को पारमार्थिक सत्य मानकर पर्याय को काल्पनिक कहकर उसके अस्तित्व को ही नकार दिया। बौद्धों ने पर्याय को पारमार्थिक सत्य मानकर द्रव्य को काल्पनिक मान लिया। जैन न्याय के अनुसार द्रव्य और पर्याय दोनों पारमार्थिक सत्य हैं। हमारा ज्ञान जब संश्लेषणात्मक होता है तब द्रव्य उपस्थित रहता है और पयार्य गौण हो जाता है और जब ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है तब पर्याय प्रधान एवं द्रव्य गौण हो जाता है। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक है। यही बात उपाध्याय यशोविजय ने नयरहस्य ग्रंथ में बताई है। वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। सामान्य एवं विशेष का परस्पर अविनाभाव है। ये एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते अर्थात् एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व हो ही नहीं सकता। विशेष से रहित 274 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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