________________ एगे आया ठाणं सूत्र का यह वक्तव्य भी हमारा ध्यान ब्रह्मद्वैतवाद की तरफ आकर्षित करता है। जैन की विचारसरणी नयात्मक है अतः संग्रहनय की दृष्टि से आत्मा के एकत्व की स्वीकृति है। उपाध्याय यशोविजय के अनुसार जैन दृष्टि में उपयोग सब आत्माओं का सदृश लक्षण है अतः उपयोग की दृष्टि से आत्मा एक है। निश्चयनय के पुरुष्कर्ता आचार्य कुन्दकुन्द ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि केवलज्ञानी सब कुछ जानता है, वह व्यवहारनय की वक्तव्यता है। निश्चयनय से तो केवलज्ञानी अपनी आत्मा को ही जानते हैं। समयसार की आत्मख्याति टीका के रचनाकार ने तो यहाँ तक कह दिया है कि आत्मा का अनुभव हो जाने पर द्वैत दृष्टिपथ में ही नहीं आता है।" ___ भगवान महावीर के उत्तरकाल में भी आत्मतत्त्व का एकत्व एवं नानात्व प्रतिपादित होता रहा है। आचार्य अकलंक ने नाना ज्ञान स्वभाव की दृष्टि से आत्मा की अनेकता और चैतन्य के एक स्वभाव की दृष्टि से उसकी एकता का प्रतिपादन किया है। इसी बात की पुष्टि करते हुए उपाध्याय यशोविजय ने अपने ग्रंथों में आत्मा की तीन अवस्थाओं का चित्रण किया है। ___अध्यात्मसार, योगावतारद्वात्रिंशिका, अध्यात्मपरीक्षा आदि ग्रंथों में उन्होंने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन त्रिविध आत्मा की चर्चा की है। ठाणं सूत्र के भाष्य में अपने मन्तव्य को प्रस्तुत करते हुए आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा-जैनदर्शन अनेकान्तवादी है, इसलिए वह केवल द्वैतवादी नहीं है और केवल अद्वैतवादी की संगति नहीं है। इन दोनों की सापेक्ष संगति है। अतः जैन को निर्विवाद रूप से प्रत्ययवादी वस्तुवादी माना जा सकता है। भारतीय दर्शनों की प्रमुख विचारधाराओं का समावेश प्रत्ययवाद एवं वस्तुवाद में हो जाता है। वैसे ही कुछ अन्य चिन्तकों ने उसे नित्य-अनित्य, भेद-अभेद आदि विभागों में समाहित किया है। मूध न्यि जैन विद्वान् पण्डित सुखलालजी ने नित्य एवं अनित्य इन दो अवधारणाओं को पांच भागों में विभक्त करके इनमें सभी प्रमुख भारतीय दर्शनों को समाविष्ट किया है। उनके मतानुसार ये पांच विभाग निम्नलिखित हैं (All) Philosophical Systems can broadly be devided into five classes, viz. : (i) Doctrine of absolute permanence (Keval Nityatvavad) (ii) Doctrine of absolute change (Keval Anityatvavad) (iii) Doctrine of changing permanent (Parinami Nityatvavada) (iv) Doctrine of the changing and the permanent (Nitya-nitya-ubhyavada) and (v) Doctrine of permanence coupled with change (Nitya-nityatmakavad). सुखलालजी के अनुसार ब्रह्मवादी वेदान्त प्रथम विभाग में, बौद्ध द्वितीय, सांख्य तृतीय, न्याय-वैशेषिक चतुर्थ एवं जैन पांचवें विभाग के अन्तर्गत आते हैं। भारतीय दर्शनों का ऐसा ही विभाग Jain Theories of Reality and Knowledge में Dr. Y.J. Padmarajalh ने किया है। उन्होंने नित्य-अनित्य के स्थान पर अभेद एवं भेद शब्द का प्रयोग किया है। 273 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org