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________________ सामान्य एवं सामान्य से रहित विशेष विषाण की तरह अयथार्थ है। सामान्य विशेष का सहअस्तित्व है। ये एक-दूसरे के बिना रह नहीं सकते। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पर्याय रहित द्रव्य एवं द्रव्य रहित पर्याय सत्य नहीं है। अनेकान्त का तात्विक आधार वस्तु में अनन्त धर्म होते हैं, यह महत्त्वपूर्ण स्वीकृति नहीं है। जैन दर्शन का यह महत्त्वपूर्ण अभ्युपगम है कि एक ही वस्तु में एक ही काल में अनन्त विरोधी धर्म युगपत् रहते हैं। अनेकान्त सिद्धान्त के उत्थान का आधार एक ही वस्तु में युगपत् विरोधी धर्मों के सहावस्थान की स्वीकृति है। वस्तु का द्र व्यपर्यायात्मक स्वरूप ही अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत है। यदि वस्तु विरोधी धर्मों की समन्विति नहीं होती तो अनेकान्त की भी कोई अपेक्षा नहीं होती चूँकि वस्तु वैसी है अतः अनेकान्त की अनिवार्य अपेक्षा है। अनेकान्त के उद्भव का मूल स्रोत वस्तु की विरोधी अनन्त धर्मात्मकता ही है। सत् की परिभाषा भगवती सूत्र में भगवान महावीर ने कहा जो उत्पन्न, नष्ट एवं स्थिर रहता है, वही सत्य है। आचार्य उमास्वाति के शब्दों में भी यही सत्य अनुगूजित है। उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्।" सत् अनेक धर्मों का समुदाय मात्र नहीं है किन्तु परस्पर विरोधी होने वाले अनेक धर्मों का आधार है। अनेकान्त . उस वस्तु की व्याख्या करता है। आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार एक ही वस्तु सत्, असत्, एक, अनेक, नित्य, अनित्य स्वभाव वाली . है। ऐसी एक ही वस्तु के वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी शक्तियुक्त धर्मों को प्रकाशित करनेवाला अनेकान्त है। वस्तु सत् ही है, असत् ही है। इस प्रकार के एकान्तवाद को निरसित करने वाला अनेकान्त है। ऐसा उपाध्याय यशोविजय का मन्तव्य है। अन्य दर्शनकृत सत् का लक्षण महोपाध्याय यशोविजय ने नहरहस्य ग्रंथ में इस प्रकार दिया हैसदविशिष्ट मेव सर्व। वस्तु का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व एकान्त द्रव्यवाद, एकान्त पर्यायवाद एवं निरपेक्ष द्रव्य एवं पर्यायवाद के आधार पर वस्तु की व्यवस्था नहीं हो सकती, क्योंकि एकान्त एवं निरपेक्ष द्रव्य या पर्याय में अर्थक्रिया ही नहीं हो सकती और वस्तु का लक्षण अर्थक्रिया है। जब क्रम या अक्रम से वस्तु में अर्थक्रिया घटित ही नहीं हो सकती तब उस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। जैन दर्शन के अनुसार वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है। इस प्रसंग में अन्य दार्शनिकों का आक्षेप है कि जो दोष एकान्त नित्यपक्ष अथवा क्षणिकपक्ष में उपस्थित होते हैं, वे ही दोष द्विगुणित होकर जैन वस्तुवाद पर क्यों नहीं आते? उपाध्याय यशोविजय इस मर्म का समाधान करते हुए कहते हैं कि यदि जैन मान्य वस्तु का स्वरूप कोरा उभयरूप होता तो इन दोषों का अवकाश वहां हो सकता था किन्तु जैन की वस्तु न द्रव्यरूप है, न पर्यायरूप एवं न ही उभयरूप है। वह तो नित्य-नित्यात्मक स्वरूप जात्यन्तर है। एक नई प्रकार की वस्तु की स्वीकृति जैन दर्शन में है अतः वस्तुवाद पर किसी प्रकार का दोष उपस्थित नहीं हो सकता। धवलाकार ने तो अनेकान्त को ही जात्यन्तर कहा है। वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है। 275 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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