________________ निषेधमुक्त से मात्र एकान्त का खण्डन किया। डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं-"त्रिपिटक में ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं, जहाँ बुद्ध ने एकान्तवाद का निरसन किया है। जब उनसे पूछा गया-क्या आत्मा और शरीर भिन्न है? वे कहते हैं-मैं ऐसा नहीं कहता। फिर जब यह पूछा गया कि आत्मा और शरीर अभिन्न है, तो उन्होंने कहा कि मैं यह भी नहीं कहता।" बौद्ध परम्परा में विकसित शून्यवाद और जैन परम्परा में विकसित अनेकान्तवाद-दोनों का ही लक्ष्य एकान्तवादी धारणाओं को अस्वीकार करना था। दोनों में फर्क इतना ही है 'शून्यवाद निषेधपदक शैली को अपनाता है और अनेकान्तवाद में विधानपरक शैली अपनाई गई है।' सांख्य का सत्कार्यवाद तिल से तेल पैदा होता है-इस उदाहरण में तेल तिल में पहले से ही था, कोई नई चीज उत्पन्न नहीं हुई। यहाँ तिल कारण है और तेल कार्य है। इस दृष्टान्त को लेकर सांख्य दर्शन में यह सिद्धान्त विकसित हुआ कि कार्य-कारण में पहले से ही रहता है। वह कारण में अव्यक्त रूप में छिपा रहता है और बाद में प्रकट हो जाता है। इस प्रकट हो जाने को ही हम उत्पन्न होना कहते हैं। उत्पन्न होने का अर्थ यह नहीं कि कोई नई चीज बन जाए। सांख्यकारिका नामक ग्रंथ की नवीं कारिका में इस सम्बन्ध में अनेक तर्क दिये गये हैं-सभी यह मानते हैं कि जो है ही नहीं, उसे उत्पन्न नहीं किया जा सकता, इसलिए उत्पन्न होने से पहले ही कार्य को कारण में होना चाहिए और वह कारण में अव्यक्त रूप में रहता है, जैसा कि तेल तिल में पहले से ही रहता है। यदि कार्य नया उत्पन्न होता तो किसी भी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न हो जाना चाहिए था किन्तु ऐसा होता नहीं। घड़ा मिट्टी से ही बनता है, धागे से नहीं। कपड़ा धागे से ही बनता है, मिट्टी. से नहीं। अतः यह मानना पड़ेगा कि कार्य कारण में पहले से ही रहता है। कारण और कार्य में एक ही गुणधर्म होते हैं, जैसा कि कहा जाता है-कारणगुणाः कार्यम् आरम्भते। स्पष्ट है कि कार्य यदि नया उत्पन्न होता तो उसका स्वभाव अलग होना चाहिए था, कारण जैसा नहीं। सांख्य के सत्कार्यवाद का आधार यह है कि सांख्यदर्शन पूरे विश्व को एक ही प्रकृति का परिणमन मानता है। यह प्रकृति स्वभाव से ही परिणमनशील है। प्रकृति के अतिरिक्त कोई ऐसा तत्त्व नहीं है, जो इस विश्व रूपी कार्य को उत्पन्न कर सके अतः यह मानना होगा कि सम्पूर्ण कार्य प्रकृति में, पहले से ही रहते हैं। प्रकृति के अतिरिक्त और कोई कार्य उत्पन्न नहीं कर सकता, क्योंकि यह तो सर्वसम्मत है कि असत् की उत्पत्ति नहीं होती है। सांख्यदर्शन के विकासवाद में प्रकृति मूल कारण है, परन्तु उसका कोई कारण नहीं है। वह अव्यक्त, सूक्ष्म है, उससे उत्पन्न होने वाले पदार्थ क्रमशः स्थूल होते जाते हैं। यह सूक्ष्म से स्थूल रूप धारण कर लेना ही कारण से कार्य का उत्पन्न हो जाना है, न कि किसी नई वस्तु का उत्पन्न होना। यह भी समझ लेना चाहिए कि रजोगुण के कारण प्रकृति में स्वयं ही परिवर्तन होता रहता है, जिसके फलस्वरूप कारण से कार्य आविर्भूत होते रहते हैं। इस प्रकार प्रकृति स्वयं ही सृष्टि की रचना कर देती है। उसके लिए ईश्वर जैसे किसी कर्ता की आवश्यकता नहीं है। 265 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org