________________ 'सर्व अस्ति' यह एक अन्त है। 'सर्व नास्ति' यहाँ दूसरा अन्त है। भगवान बुद्ध ने इन दोनों को अस्वीकार करके मध्यम मार्ग का अवलम्बन लिया है। वे कहते हैं सव्वं अत्थीति खो ब्राह्मण अयं एको अन्तो.... सव्यं नत्थीति खो ब्राह्मण अयं दुतियो अन्तो। एतेते ब्राह्मणउमो अन्ते अनुपगम्म मज्सेन तथागतो धम्म देसेतिअविज्जा पच्चया संखार / / शून्यवादी एक ही संसार को अस्ति, नास्ति रूप कहते हैं जगत् वैचित्र्यं व्यवहारतो अस्ति निष्चयतो नास्ति। - इस प्रकार का कथन अनेकान्तविहीन दृष्टि नहीं कर सकती। बौद्ध दार्शनिक एक ही निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को प्रमाण एवं अप्रमाण दोनों मानते हैं। नीलादि अंश में 'यह नीला है' इस प्रकार अनुकूल विकल्प पैदा करने के कारण प्रमाण है तथा क्षणिकांश पक्ष में अक्षणिक विकल्प का दर्शन अप्रमाण है। बौद्ध दर्शन ने सविकल्पक ज्ञान को बाध्य नीलादि पदार्थ की अपेक्षा सविकल्पक एवं स्वरूप की अपेक्षा निर्विकल्पक स्वीकार करके स्वतः ही अनेकान्त की स्वीकृति दे दी है। न्यायबिन्दु में धर्मकीर्ति ने कहा हैदर्शनोसंरदकालभाविनः स्वाकार-ध्यवसाविन एकस्यैय विकल्पस्य बाध्यार्थे सविकल्पत्वमात्मस्वरूपे तु सर्वचित चैतना मात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम्।" जो ज्ञान जिस पदार्थ के आकार का होता है, वह उसी पदार्थ को जानता है। निराकार ज्ञान पदार्थ को नहीं जान सकता। इस तदाकारता को बौद्धों ने प्रमाणता का नियामक माना है। इस नियम के अनुसार नाना रंग वाले चित्रपट को जानने वाला ज्ञान भी चित्राकार ही होगा। अतः एक ही चित्रपट ज्ञान को अनेक आकार वाला मानना, एक को ही चित्र-विचित्र रूप मानना अनेकान्त नहीं तो और क्या है? इसी नियम के अनुसार संसार के समस्त पदार्थों को जानने वाले सर्वज्ञ सुगत का ज्ञान सर्वाकार याने चित्र-विचित्रकार होना ही चाहिए। इस तरह सुगत के एक ही ज्ञान को सर्वाकार मानना भी अनेकान्त का समर्थन करना है। इसी सन्दर्भ में उपाध्याय कहते हैं कि "बौद्ध दर्शन भी अनेकान्तवाद से मुक्त नहीं है।" वे कहते हैं-"विचित्र आकार वाली वस्तु का एक आकार वाले विज्ञान में प्रतिबिम्ब होने को मान्य करनेवाले प्राज्ञ बौद्ध भी अनेकान्तवाद का अपलाप नहीं कर सकते। विभिन्न वर्ण से युक्त पट का जो ज्ञान होता है, वहाँ ज्ञान का स्वरूप तो एक ही है, परन्तु वह विविध वर्ण के उल्लेख वाले अनेक आकार से युक्त है। आशय यह है कि ग्राहकत्व रूप से ज्ञान का स्वरूप एक होने पर भी उसमें नील, पीत आदि अनेक रूप भी हैं। यह मान्यता अनेकान्तवाद का आधार लेने पर ही सम्भव है। अपने सिद्धान्त की नींव में रहे हुए अनेकान्तवाद के आधार पर अनादर करने का मतलब यही हुआ कि यह अनादर अपने पैरों पर ही कुठाराघात के प्रहार के समान है। शाश्वतवाद और उच्छेदवाद इन दोनों एकान्तों को अस्वीकार करने वाले गौतम-बुद्ध की स्याद्वाद में मूक सहमती तो है ही। एकान्तवाद से बचने के लिए बुद्ध ने या तो मौन का सहारा लिया, या विभाज्यवाद को अपनाया, अथवा 264 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org