________________ सांख्यदर्शन और अनेकान्तवाद सांख्यदर्शन प्रकृति को त्रिगुणात्मक मानता है और ये तीनों गुण आपस में विरोधी हैं। उनका एक ही प्रकृति में सहावस्थान अनेकान्त के बिना सम्भव नहीं है। एक ही प्रकृति संसारी प्राणियों के प्रति प्रवृत्तिधर्मी तथा मोक्ष रूप पुरुषों के लिए निवृत्तिधर्मी है। यह अभ्युपगम भी अनेकान्त का द्योतक है। सांख्य प्रकृति और पुरुष को निश्चयतः भिन्न तथा व्यवहारतः अभिन्न मानते हैं। यह कथन भी अनेकान्त की पुष्टि करता है। इसी सन्दर्भ में उपाध्याय यशोविजय भी कहते हैं कि “सत्य, रजस् और तमस्-इन तीन विरोधी गुणों से युक्त प्रकृति तत्त्व को स्वीकार करने वाले बुद्धिशालियों में मुख्य ऐसा सांख्य अनेकान्तवाद का प्रतिक्षेप नहीं करता है क्योंकि स्याद्वाद का विरोध करने पर उसको मान्य प्रधान प्रकृति तत्त्व का भी उच्छेद हो जायेगा। परस्पर विरोधी गुणधर्मों से युक्त प्रकृतितत्त्व को स्वीकार करना और अनेकान्तवाद का विरोध करना तो जिस घर में रहते हैं, उनको तोड़ने जैसा है। साथ ही सांख्य दर्शन प्रकृति में प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों गुणों को स्वीकार करता है। सांसारिक पुरुषों की अपेक्षा से वह प्रवृत्यात्मक और मुक्त पुरुष की अपेक्षा से निवृत्यात्मक देखी जाती है। इस प्रकार पुरुष में ज्ञान-अज्ञान, कर्तृत्व-अकर्तृत्व, भोक्तृत्व-अभोक्तृत्व के विरोधी गुण रहते हैं। सांख्यदर्शन की इस मान्यता को महाभारत में भी स्पष्ट किया गया है। उसमें लिखा है-"जो विद्वान् जड़ और चेतन के भेदाभेद को तथा एकत्व और नानात्व देखता है, वह वह दुःख से छूट जाता है।"1 डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि जड़ और चेतन का यह भेदाभेद तथा एकत्व में अनेकत्व और अनेकत्व में एकत्व की यह दृष्टि अनेकान्तवाद की स्वीकृति के अतिरिक्त और क्या हो सकती है? यही भेदाभेद की दृष्टि अनेकान्त की आधारभूमि है, जिसे किसी-न-किसी * रूप में सभी दर्शनों को स्वीकार करना ही होता है। न्याय वैशेषिक का असत्कार्यवाद न्याय-वैशेषिक के अनुसार यह सृष्टि परमाणुओं से बनी है, प्रकृति से नहीं। परमाणु अनन्त हैं जबकि सांख्य की प्रकृति एक ही है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सांख्य की प्रकृति स्वतः परिणमनशील है जबकि नैयायिक के अनुसार परमाणु अपने आप में स्थितिशील हैं। जब तक उन्हें गति न दें, ये गति नहीं करते। अतः उनमें गति प्रदान करने के लिए उन्हें ईश्वर को मानना पड़ा, क्योंकि सृष्टि को बनाने के लिए परमाणुओं का परस्पर संयोग होना आवश्यक है और इस संयोग के लिए उनमें गति होना आवश्यक है और यह गति ईश्वर देता है। कार्य उत्पन्न होते समय परमाणुओं में तो परिवर्तन नहीं होता अपितु उनके गुणधर्मों में परिवर्तन होता है। मुख्य बात यह है कि कोई भी कार्य स्वयं नहीं हो सकता। उसके लिए किसी-न-किसी को प्रयत्न करना पड़ता है। नैयायिक का कहना है कि कार्य अनेक अवयवों को जोड़कर बनता है। अवयवों का जोड़ अवयवी कहलाता है और अवयवी सदा अवयव से भिन्न होता है इसलिए अवयवों के जुड़ने से पहले अवयवी का अस्तित्व नहीं होता। नैयायिक के अनुसार किसी चीज के उत्पन्न होने से पहले उसका अभाव होता है। इस अभाव को प्राग्भाव कहते हैं। उत्पन्न होने पर कार्य प्राग्भाव नहीं रहता। इस बात को शास्त्रीय भाषा में इस प्रकार कहा जाता है कि कार्य प्राग्भाव प्रतियोगी होता है। बनने से पहले घड़ा नहीं था अतः हम कहेंगे कि घड़े का प्राग्भाव था। घड़ा पैदा हो गया तब घड़े का प्राग्भाव नहीं रहा। इसे हम इस प्रकार कहेंगे कि घड़ा प्राग्भाव का प्रतियोगी है। अपने असत्कार्यवाद के समर्थन में न्याय-वैशेषिक अनेक युक्तियां प्रस्तुत करते हैं। 266 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org