________________ वेदान्त और अनेकान्त जैन दर्शन के द्वारा दो सत्ता स्वीकृत हैं-पारमार्थिक और व्यावहारिक। वेदान्त के द्वारा तीन सत्ताएँ स्वीकृत हैं-पारमार्थिक, व्यावहारिक एवं प्रातिभासिक। जैन दर्शन के अनुसार चेतन और अचेतन-दोनों पारमार्थिक सत्य हैं। दोनों की वास्तविक सत्ता है। जैनदर्शन चेतन और अचेतन जगत् की वास्तविक सत्ता को स्वीकार करता है इसलिए वह यथार्थवादी है। वेदान्त के अनुसार ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य है। वह एक है। शेष जो नानात्व है, वह वास्तविक नहीं है। वेदान्त दर्शन ब्रह्म से भिन्न जगत् की वास्तविक सत्ता को स्वीकार नहीं करता, इसलिए वह आदर्शवादी है। आदर्शवादी दृष्टिकोण के अनुसार चेतन का ब्रह्म से भिन्न अचेतन की सत्ता स्वीकार करना मिथ्या-दर्शन है और ब्रह्म को ही पारमार्थिक सत्य मानना सम्यक्दर्शन कहलाता है। वेदान्त के अनुसार जैसे एकत्व पारमार्थिक और प्रपंच व्यावहारिक है, वैसे ही अनेकान्त की भाषा में कहा जा सकता है कि द्रव्यत्व पारमार्थिक और पर्यायत्व व्यावहारिक है। वेदान्त का विवर्तवाद | . कारण कार्य के सम्बन्ध में अद्वैत वेदान्त का मत विवर्तवाद कहलाता है। इस वाद के अनुसार ब्रह्म की ही एकमात्र वास्तविक सत्ता है। वही जगत् का कारण है। उसी से नाना रूपात्मक जगत् की उत्पत्ति होती है, किन्तु यह कार्य रूप जगत् वस्तुतः सत्य नहीं है। वह मन की कल्पना मात्र है। इसे समझाने के लिए अद्वैत वेदान्त में रस्सी एवं सर्प का उदाहरण विशेष रूप से उपयोग में लिया है। ___ अंधकार में एक रस्सी पड़ी है। एक व्यक्ति उधर से निकलता है। उसकी दृष्टि उस पर पड़ती है और वह उसे सर्प समझकर भयाक्रान्त हो जाता है, भाग जाता है। फिर दीपक लेकर वहाँ आता है, उसे देखता है, तब उसे ज्ञात होता है कि वह रस्सी है, सर्प नहीं है। रस्सी का ज्ञात होने पर उसका सर्पज्ञान बाधित हो जाता है। वह रस्सी उसे रस्सी ही प्रतीत होती है, सर्प नहीं। अतः रस्सी में होने वाला सर्प ज्ञान सत्य नहीं है। कार्यकारण भाव के आधार पर यह जगत् वैसी ही कल्पना है, जैसी रस्सी में सर्प की होती है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार जगत् का एकमात्र कारण ब्रह्म है, जो कि नित्य, कूटस्थ, विभु, सर्वगतं एवं अव्यय है। वह न किसी से उत्पन्न होता है, न किसी को उत्पन्न करता है। प्रश्न हो सकता है कि ब्रह्म न तो किसी से उत्पन्न होता है, न किसी को उत्पन्न करता है तो यह नाना प्रपंचात्मक जगत् क्या है? यह कैसे उत्पन्न हुआ? वेदान्त के अनुसार वह जगत् मिथ्या है और यह वैसे ही उत्पन्न हो जाता है, जैसे रस्सी में सर्पज्ञान उत्पन्न हो जाता है। वास्तव में वह सर्प नहीं होता परन्तु दिखाई देता है। वैसे ही यह जगत् मिथ्या है, अज्ञान के कारण प्रतिभासित हो रहा है। वेदान्त के अनुसार यह जगत् मायारूप है। इस माया की दो शक्तियां हैं-आवरण और विक्षेप। आवरण शक्ति का कार्य है-जो सत् है, उसको छिपा लेना, आवृत्त कर देना और विक्षेप शक्ति का कार्य है-जो नहीं है, उसे दिखा देना। ब्रह्म जो कि सत् है, आवरण शक्ति उसे छिपा लेती है और जगत्, जो कि मिथ्या है, विक्षेप शक्ति उसे दिखा देती है। यह वैसे ही होता है, जैसे प्रोजेक्टर सिनेमा के पर्दे को छिपा लेता है और नायक-नायिका आदि पात्रों को, जो वहां नहीं है, दिखा देता है। हमारे मन में आवरण और विक्षेप-ये दोनों शक्तियां रहती हैं। 261 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org