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________________ वेदान्त शास्त्रीय भाषा में विवर्त शब्द का प्रयोग करता है। विवर्त का अर्थ है, न बदलने पर भी परिवर्तन जैसा दिखाई देता। रस्सी में वस्तुतः कोई परिवर्तन होता नहीं, किन्तु वहाँ सर्प दिखाई पड़ने लगता है अतः सर्प रस्सी का विवर्त हुआ परिणमन नहीं। इस प्रकार वेदान्त कारण से कार्य की उत्पत्ति को विवर्त मानता है, परिणमन नहीं। इसी आधार पर वह अद्वैत की सिद्धि करता है। रस्सी तो एक ही है, उसमें जो सर्प की प्रतीति है, वह भ्रांतिजन्य है, वास्तविक नहीं। ब्रह्म एक ही है, उसमें जो नानारूप जगत् दिखाई पड़ता है, वह वास्तविक नहीं है। अतः ब्रह्म की अद्वैत स्थिति ही वास्तविक है। उपाध्याय यशोविजय सभी दर्शनों में अनेकान्तवाद अन्तर्निहित है-यह सिद्ध करते हुए कहते हैं-"ब्रह्मतत्त्व परमार्थ से बंधनरहित है और व्यवहार से बंधा हुआ है। इस प्रकार कहने वाले वेदान्त अनेकान्तवाद का अनादर नहीं कर सकते हैं।" डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं- “आचार्य शंकर सृष्टिकर्ता ईश्वर के प्रसंग में स्वयं ही प्रवृत्ति-अप्रवृत्ति रूप दो परस्पर विरोधी गुणों को स्वीकारते हैं। ये लिखते हैं ईश्वरस्य तु सर्वज्ञत्वात् सर्व शक्तिमत्वात्। महामायत्वाच्च प्रवृत्वप्रवृत्ति न विरुध्यते।। पुनः माया को न ब्रह्म से पृथक् कहा जा सकता है और न अपृथक्, क्योंकि पृथक् मानने पर अद्वैत खण्डित होता है और अपृथक् मानने पर ब्रह्म माया के कारण विकारी सिद्ध होता है। पुनः माया को न सत् कह सकते हैं और न असत्। यदि माया असत् है तो सृष्टि कैसे होगी और यदि माया सत् है तो फिर मुक्ति कैसे होगी? वस्तुतः माया न सत् है और न असत् है। वह न ब्रह्म से भिन्न है और न ही अभिन्न है। यहाँ अनेकान्तवाद जिस बात को विधिमुख से कह रहा है, वही शंकर उसे निषेधमुख से कह रहा है। निम्बार्कभाष्य की टीका में श्रीनिवास आचार्य कहते हैं-जगत् और ब्रह्मतत्त्व का परस्पर भेदाभेद स्वाभाविक है। श्रुति, वेद, उपनिषद्, स्मृति स्वरूप शास्त्रों से सिद्ध है, इस कारण से उनमें विरोध कैसा? इस प्रकार श्रीनिवास आचार्य भी अनेकान्त की अवहेलना नहीं कर सकते हैं। बौद्ध का प्रतीत्यसमुत्पाद जिस प्रकार वेदान्त का विवर्तवाद सत्कार्यवाद का ही प्रत्ययवादी रूप है, उसी प्रकार बौद्ध का प्रतीत्यसमुत्पाद असत्कार्यवाद का प्रत्ययवादी रूप है। बौद्ध भी न्याय के समान यह मानता है कि कार्य नया उत्पन्न होता है, किन्तु वह यह मानने के लिए तैयार नहीं कि अवयवों को जोड़कर अवयवी बनता है। बौद्ध की दृष्टि में तो केवल अवयव ही सत्य हैं। अवयवी हमारी दृष्टि का भ्रम है। दीपशिखा के उदाहरण में बताया है कि हमें जो दीपशिखा दिखाई देती है, वह वस्तुतः एक नहीं है, अनेक हैं। दृष्टि भ्रम के कारण हमें एक दिखाई देती है। बौद्ध का अवयव नैयायिक के परमाणुओं के समान नित्य नहीं है। वह अवयव उत्पन्न होता है और उसी क्षण समाप्त भी हो जाता है। उसका अस्तित्व एक क्षण के लिए ही है। यह प्रथम क्षण में उत्पन्न होकर नष्ट हो जाने वाला अवयव अपने समान ही दूसरे क्षणभंगुर अवयवों को जन्म दे देता है और इसी समानता के कारण हम सर्वथा दो भिन्न अवयवों को एक अवयवी मान लेते हैं। बौद्ध का क्षण न्याय के परमाणु की तरह नित्य भी नहीं है और सांख्य की प्रकृति की तरह परिणामी भी नहीं है। उसका अस्तित्व केवल एक क्षण के लिए है। प्रथम क्षण के अनन्तर जिस द्वितीय क्षण की उत्पत्ति 262 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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