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________________ मीमांसा दर्शन एवं अनेकान्त मीमांसा शब्द पूजार्थक मान् धातु से जिज्ञासा अर्थ में निष्पन्न होता है। महर्षि जैमीनी मीमांसा दर्शन के सूत्रकार हैं। मीमांसा के दो भेद हैं-पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा। पूर्वमीमांसा में वैदिक कर्मकाण्ड का वर्णन है और उत्तरमीमांसा का विषय है-ब्रह्म। अतः उत्तरमीमांसा वेदान्त नाम से प्रसिद्ध है। इस कारण पूर्वमीमांसा के लिए केवल मीमांसा शब्द का प्रयोग किया जाता है। पूर्व मीमांसा में भी कुमारिल भट्ट तथा प्रभाकर-इन दो प्रमुख आचार्यों के अनुवादियों के अनुसार भट्ट और प्रभाकर इस प्रकार दो भेद हैं। मीमांसकों में कुमारिल आदि स्वयं ही सामान्य और विशेष में कथंचितादात्म्य धर्म और धर्मी में भेदाभेद तथा वस्तु को उत्पादादि त्रयात्मक स्वीकार करके अनेकान्त को मानते ही हैं। वस्तु के सम्बन्ध में कुमारिल लिखते हैं वर्धमानकभडगे च रुचकः क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युतरार्थिनः।। हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् / नोत्पादस्थितिभडंग नामभावे स्यान्मतित्रयम्।। ना नाशेन बिना शोको नोत्पादेन बिना सुखम्। स्थित्या बिना न माध्यस्थयं तेन सामान्यनित्यता।।" जब सोने के एक प्याले को तोड़कर माला बनाई जाती है तब प्याला चाहने वाले को शोक होता है, माला चाहने वाले को हर्ष होता है और सोने का इच्छुक मध्यस्थ रहता है। इससे वस्तु के त्रयात्मक होने की सूचना मिलती है। उत्पाद, स्थिति और व्यय के अभाव में तीन प्रकार की बुद्धि नहीं हो सकती . . अतः वस्तु सामान्य से नित्य है। मीमांसक शब्द और अर्थ का नित्य सम्बन्ध मानते हैं। ये श्रुतिवाक्य को कार्यरूप अर्थ में ही प्रमाण मानते हैं। इस कार्य को वे त्रिकाल शून्य कहते हैं। उनका तात्पर्य है कि वेदवाक्य त्रिकालशून्य शुद्ध कार्यरूप अर्थ को ही विषय करते हैं। इसी विषय में अनेकान्तवादियों का प्रश्न है कि यदि कार्यरूपता त्रिकालशून्य है, किसी भी काल में अपनी सत्ता नहीं रखती है तब वह अभाव प्रमाण का ही विषय हो जायेगी, उसे आगमगम्य मानना अयुक्त है। यदि वह अर्थरूप है तो कार्य को त्रिकालशून्य भी मानना होगा तथा अर्थरूप भी, तभी वह वेदवाक्य का विषय हो सकता है। इसीलिए जब अनेकान्त को माने बिना वेदवाक्य का विषय ही नहीं सिद्ध हो सकता, तब उसे अगत्या मान ही लेना चाहिए। अतः एक - ही वस्तु में दो विरोधी गुण को अपेक्षाभेद से स्वीकार करना, यही तो स्याद्वाद है। साथ ही उपाध्याय यशोविजय कुमारिल भट्ट के मत की व्याख्या करते हुए कहते हैं“वस्तु जाति (सामान्य) और व्यक्ति (विशेष) उभयात्मक हैं। इस प्रखर अनुभवगम्य बात स्वीकार करने वाले कुमारिल भट्ट भी अनेकान्त का अपलाप नहीं कर सकते हैं, क्योंकि अनेकान्त का विरोध करने पर इनको मान्य वस्तु सामान्य-विशेषात्मक है, यह बात असिद्ध हो जाएगी। कुमारिल भट्ट द्वारा पदार्थों को उत्पत्ति, विनाश और स्थितियुक्त मानना, अवयव और अवयवी में भेदाभेद मानना, सामान्य और विशेष को सापेक्ष मानना आदि तत्त्वों से इस बात को बल मिलता है कि उसके दार्शनिक चिन्तन की पृष्ठभूमि में कहीं-न-कहीं अनेकान्त के तत्त्व उपस्थित हैं। कुमार 260 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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