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________________ बताने से सत्यता ही उद्भासित हो जाती है। जैसे कोई मूर्ख व्यक्ति यह कहे कि "मैं पण्डित हूँ, किन्तु मैं झूठ बोल रहा हूँ।" तो वह असत्य बोलने का दोषी नहीं है। ठीक वही स्थिति ‘स्यात् घट है।' इस कथन की। यहाँ स्यात् पद से कथन की एकधर्मस्पर्शिता व्यक्त की जा रही है, साथ ही अन्य विरोधी दृष्टि से जुड़े विरुद्ध धर्म की सत्ता से भी अपना अविरोध व्यक्त करता है, जिससे उक्त कथन सत्य की कोटि में प्रतिष्ठित हो जाता है। यही दर्शन के स्याद्वाद अनेकान्तवाद सिद्धान्त का हार्द है। जैन दर्शन की दृष्टि में सभी विचारभेदों में वैयक्तिक दृष्टिभेद कारण है। वास्तव में उनमें विरोध तो है ही नहीं, विरोध तो हमारी दृष्टियों में पनपता है। वस्तु तो सभी विरोधों से ऊपर है। एक ही व्यक्ति किसी का पिता है, किसी का बेटा है, किसी का भाई है तो किसी का पति। उस व्यक्ति का प्रत्येक सम्बन्ध जन दृष्टिविशेष से जुड़ा हुआ है। वस्तुतः व्यक्ति पितृत्व, पुत्रत्व आदि विविध धर्मों का पुंज भी है। यही स्थिति परमसत्य के विषय में है। सभी दर्शन अपनी-अपनी दृष्टि से उसका निरूपण करते हैं, किन्तु उन सभी ज्ञात-अज्ञात दृष्टियों का समन्वित रूप ही परम सत्य है। अनेकान्त का सिद्धान्त किसी भी एक दर्शन विशेष का नहीं, तथापि एकान्त दृष्टि के पृष्ठपाठकों ने इसके विस्तृत दायरे को सीमित करने का प्रयत्न किया। इसी को किसी एक दर्शन विशेष का अभ्युपगम कहकर नकारने का प्रयत्न किया किन्तु सच्चाई तो यह है कि अनेकान्त के बिना किसी का भी कार्य सम्यक् रूप से चल नहीं सकता। एकान्तवादी दर्शनों के सिद्धान्त किस तरह अनेकान्तवाद में सम्मिलित हैं, इस विषय का सतर्क सम्यक् प्रतिपादन उपाध्याय यशोविजय ने अपने ग्रंथ अध्यात्मोपनिषद् में किया है। अनेकान्तवाद का क्षेत्र इतना व्यापक है कि किसी भी क्षेत्र में इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती है। सिद्धान्त रूप से अनेकान्त का निराकरण करने वालों को भी अपने सिद्धान्त की व्यवस्था के लिए अनेकान्त सोपान का हठात् आश्रय लेना पड़ता है। इस प्रकार के स्पष्ट उदाहरण उनके ग्रंथों में कई स्थलों पर उपलब्ध होते हैं। विश्व के स्वरूप विषयक चिंतन का मूल ऋग्वेद से भी प्राचीन है। इस चिन्तन के फलस्वरूप विविध दर्शन क्रमशः विकसित और स्थापित हुए, जो संक्षेप में पांच प्रकारों में समा जाता है ब्रह्मवादी वेदान्ती-नित्यवाद बौद्ध-अनित्यवाद सांख्ययोगादि-परिणामी नित्यवाद न्याय वैशेषिक-नित्यानित्यः उभयवादी जैन दर्शन-नित्यानित्यात्मक अनेकान्तवादी है। ब्रह्मवादी वेदान्ती केवल नित्यवादी है, क्योंकि उनके मत से अनित्यत्व आभासिक मात्र है। बौद्ध क्षणिकवादी होने से केवल अनित्यवादी है। सांख्य-योगादि चेतन भिन्न जगत् को परिणामी नित्य मानने के कारण परिणामी नित्यवादी है। न्याय वैशेषिक आदि कुछ पदार्थों को नित्य और कुछ पदार्थों को अनित्य मानने के कारण नित्यानित्य उभयवादी है। जैनदर्शन सभी पदार्थों को नित्यानित्यात्मक मानने के कारण नित्यानित्यात्मकवादी या अनेकान्तवादी है। नित्यानित्यत्व विषयक दार्शनिकों के उक्त सिद्धान्त श्रुति और आगमकालीन उनके अपने-अपने ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से वर्णित पाये जाते हैं और थोड़ा बहुत विरोधी मन्तव्यों का प्रतिवाद भी उनमें देखा जाता है। यहाँ हम अनेकान्त के परिप्रेक्ष्य में मीमांसा, वेदान्त, बौद्ध, न्याय-वैशेषिक, सांख्ययोग के साथ एक तुलनात्मक दृष्टि से विवेचन कर रहे हैं। 259 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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