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________________ अनेकान्तवाद यानी एकांतवादियों को जीतने का अमोघ शस्त्र है। अनेकान्तवाद नयरूपी मदोन्मत हाथी को वश करने वाला अनुपम अंकुश है। अनेकान्तवाद यानी सरस्वती को रहने का मनोहर महल है। अनेकान्तवाद यानी अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करने वाला सहस्त्रांशु सूर्य है। . अनेकान्तवाद यानी सज्ञानियों का हृदय रूपी रत्नाकर की छोलों को उछालनार पूर्णचन्द्र है। विश्व की अदालत में सही न्याय देने वाला न्यायाधीश यानी अनेकान्तवाद। समस्त विश्व का महान् कीर्तिस्तम्भ, कर्णप्रिय मनमोहक सुन्दर संगीत, विश्वशांति स्थापना, अद्वितीय सत्ता यानी अनेकान्तवाद। अनेकान्तवाद वह नित्यानित्य, भिन्नाभिन्न, भेदाभेद आदि रूप वस्तुओं को आकर्षक संग्रहस्थान है। __संरक्षक, अभेद्य किल्ला, अहिंसा, संयम और तपरूपी सद्धर्म का सर्वोत्कृष्ट विजयी ध्वज, सकलगुण का अकूट भण्डार, मुक्ति मन्दिर की मनोहर सोपान पंक्ति यानी अनेकान्तवाद। इस तरह हम कह सकते हैं कि सार्वभौम, सत्तावंत, स्याद्वाद, अनेकान्तवाद वह एक महान् चक्रवर्ती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि इस विश्व में अनेक प्रकार के वाद हैं-राष्ट्रवाद, साम्राज्यवाद, समाजवाद, शाहीवाद, संस्थानवाद, संदिग्धवाद, संशयवाद, शून्यवाद, असंभवितवाद, निरपेक्षवाद, एकान्तवाद, वितंडावाद, विश्ववाद, जातिवाद, कोमवाद, मूडीवाद, पक्षवाद, प्रांतवाद, भाषावाद, अज्ञेयवाद, अज्ञानवाद, द्वैतवाद, दृष्टिसृष्टिवाद, अजातवाद, अक्रियावाद, क्षणिकवाद, विवर्तवाद, आरंभवाद, स्फोटवाद, शुष्कवाद, वदेवाद, नयवाद, तर्कवाद, सर्वोदयवाद, विकासवाद एवं विज्ञानवाद आदि। . इन सब से न्याय, सभी वादों पर अपना प्रभुत्व जमाने वाला, सर्वत्र जिनेश्वर परमात्मा द्वारा प्ररूपित . एकमात्र स्याद्वाद-अनेकान्तवाद इस विश्व में सदा विजयवंत बने। जैन दर्शन का आधार-अनेकान्तवाद जैन दर्शन ने परम सत्य को समझने/समझाने/निरूपित करने के लिए अनेकान्तवाद व स्याद्वाद सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। अनेकान्तवाद वस्तु में परस्पर विरुद्ध धर्मों की अविरोधपूर्ण स्थिति का तथा उसकी अनन्त धर्मात्मकता का निरूपण करता है। स्याद्वाद सीमित ज्ञानधारी प्राणियों के लिए उक्त अनेकान्तात्मकता को व्यक्त करने की ऐसी पद्धति निर्धारित करता है, जिससे असत्यता का एकांगिकता या दुराग्रह आदि दोषों से बचा जा सकता है। यह वस्तु घड़ा ही है। यहां घड़ा है। मेरी अपनी दृष्टि से या किसी दृष्टि से यह घड़ा है-ये तीन प्रकार के कथन हैं। इनमें उत्तरोत्तर सत्यता अधिक उजागर होती गई है। अन्तिम कथन परम सत्य को व्यक्त करने वाली विविध दृष्टियों तथा उन पर आधारित कथनों के अस्तित्व को संकेतिक करता हुआ परम सत्य से स्वयं की समबद्धता को भी व्यक्त करता है। इसलिए वह स्वयं में एकांगी होते हुए भी असत्यता व पूर्ण एकांगिकता की कोटि से ऊपर उठ जाता है। जैसे अंजलि में गृहीत गंगजाल में समस्त गंगा की पवित्रता व पावनता निहित है, उसी प्रकार उक्त कथन में सत्यता निहित है। वास्तव में अपने कथन की वास्तविक स्थिति 258 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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