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________________ शब्दवद व्यक्तायां वाचि उस धातु पर से बना हुआ है। उनकी व्युत्पत्ति वदनं वादः ऐसा अर्थ कथन करना अर्थात् वचन व्यवहार करना ऐसा होता है। दोनों साथ में मिले तो स्याद् इति वादः स्याद्वादः अर्थात् स्याद् पूर्वक जो वाद हो अनेकान्तवाद ऐसा अर्थ होता है। इस तरह व्याकरणदृष्टि से व्युत्पत्यर्थ सहित स्याद्वाद शब्द सिद्ध होता है। स्याद्वाद का लक्षण एकस्मिन् वस्तुनि सापेक्षरीत्वा विरुद्धनानाधर्मस्वीकारो हि स्याद्वादः। अर्थात् एक ही वस्तु में अपेक्षाभेद से विरुद्ध विविध धर्म का स्वीकार करना, वो स्याद्वाद कहलाता है। अथवा नित्यानित्याधनेकधर्माणामेकवस्तुनि स्वीकारः स्याद्वादः। नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्मों का एक ही द्रव्य में स्वीकार करना, वह स्याद्वाद कहलाता है। कलिकाल सर्वज्ञ- भगवान श्रीमद् हेमचन्द्रसूरीश्वर महाराजश्री ने श्री सिद्धहेम शब्दानुशासन (वृहवृत्ति) में स्याद्वाद संबंध में द्वितीय सूत्र की रचना करके उनका व्युत्पत्यर्थ बतलाया है। स्याद्वादः नित्यानित्याधनेकधर्मशबलैकवस्तवभ्युपगम इतिः।" नित्यत्व एवं अनित्यत्व आदि अनेक धर्मों से मिश्रित एक ही वस्तु का स्वीकार करना ही स्याद्वाद शब्द का फलितार्थ है। ___इस तरह स्याद्वाद अनेकांतवाद का लक्षण मानना उचित है। श्री हेमचन्द्राचार्य ने भी अन्ययोगव्यवच्छेदिका. . में बताया है कि अयं जनो नाथ! तव स्तवाय गुणान्तरेभ्यः स्पृहयालुरेव। विगाहतां किन्तु यथार्थवाद मेकं परीक्षाविधि दुर्विदग्धः।। हे नाथ! परीक्षाविधि में दुर्विदग्ध पंडित यह मनुष्य आपके गुणों की स्तवना करने में दूसरे गुणों . की इच्छा तो रखता है, फिर भी आपके यथार्थवाद का एकमात्र गुण में गहरा उतरता है, वो यथार्थवाद ही स्याद्वाद है। दर्शाव्यो स्वमुखे जिनेन्द्र प्रभुएँ अर्थ करी प्रेम थी, गूंथ्यो ए श्रुतकेवली गणधरे सूत्रे घणा भाव थी। स्थापे शान्ति अपूर्व ए जगतमा तत्वे करी पूर्ण ए, ने छे वंध सदा अजेय जगमां अनेकान्तवाद सिद्धांत ए।।" अनेकान्तवाद क्या है? अनेकान्तवाद जैनदर्शन का मौलिक सिद्धान्त है। सभी दर्शन की मीट उनके पर ही है। स्याद्वादर्शन या अनेकान्तदर्शन के नाम से उनकी प्रसिद्धि है। ___ अनेकान्तवाद यानी तरणतारण तीर्थंकर परमात्मा एवं श्रुतकेवली गणधर आदि के वदनादि से बहता हुआ गंगाप्रवाह है। अनेकान्तवाद यानी विश्व को यथार्थ स्वरूप में जानने वाला दिव्यचक्षु है। अनेकान्तवाद यानी जगत् की कोई भी वस्तु को अपेक्षाभेद से संकलन करना अलौकिक शास्त्र है। 257 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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