________________ प्रमाणमीमांसा की विशिष्टताएँ - भारतीय प्रमाणशास्त्र के विकास में जैनाचार्यों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जैन परम्परा में भगवान् महावीर के पश्चात् उनके तथा उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों के विचारों को संकलित करने के लिए प्राकृत भाषा में विभिन्न आगमों, यथा-भगवती, सूत्रकृतांग, नन्दी, अनुयोगद्वार, षट्खण्डागम आदि ग्रंथों की रचना हुई। विभिन्न आगमों को सूत्रबद्ध करते हुए आचार्य उमास्वाति ने सर्वप्रथम संस्कृत भाषा में तत्त्वार्थसूत्र की रचना की, जिसमें उन्होंने सर्वप्रथम प्रमाण की चर्चा की। यद्यपि जैनों का पंचज्ञान का सिद्धान्त प्राचीन है, फिर भी जहाँ तक प्रमाणशास्त्र के क्षेत्र में जैनों का प्रवेश नैयायिकों, मीमांसकों और बौद्धों के पश्चात् ही हुआ है। प्रमाण क्षेत्र में जैनों का प्रवेश भले ही परवर्ती हो किन्तु इस कारण वे इस क्षेत्र में कुछ विशिष्ट अवदान दे सके हैं। इस क्षेत्र में परवर्ती होने का लाभ यह हुआ कि जैनों ने पक्ष और प्रतिपक्ष के गुण-दोषों का सम्यक् मूल्यांकन करके फिर अपने मन्तव्य को इस रूप में प्रस्तुत किया कि वह पक्ष और प्रतिपक्ष की तार्किक कमियों का परिमार्जन करते हुए एक व्यापक और समन्वयात्मक सिद्धान्त बन सके। आचार्य हेमचन्द्र का प्रमाणमीमांसा नामक यह ग्रन्थ भी जैन न्याय के विकास का एक चरण है। प्रमाणमीमांसा एक अपूर्ण ग्रन्थ है। न तो मूल ग्रन्थ ही और न उसकी वृत्ति ही पूर्ण है। उपलब्ध मूल सूत्र 100 है और इन्हीं पर वृत्ति भी उपलब्ध है। इसका तात्पर्य यह है कि आचार्य हेमचन्द्र यह ग्रन्थ अपने जीवनकाल में पूर्ण नहीं कर सके थे। इसका फलित यह है कि उन्होंने अपने जीवन के अन्तिम चरण में इस कृति का लेखन प्रारम्भ किया होगा। यह ग्रन्थ भी कणादसूत्र, वैशेषिकसूत्र, ब्रह्मसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र की तरह सूत्रशैली का ग्रन्थ है, फिर भी इस ग्रन्थ की वर्गीकरण शैली भिन्न ही है। आज मात्र दो अध्याय अपूर्ण ही उपलब्ध हैं। अपूर्ण होने पर भी इस ग्रन्थ की मूल्यवत्ता अक्षुण्ण बनी हुई है। जैन परम्परा में 'प्रमात्व किं वा प्रामाण्य' का प्रश्न उसमें तर्कयुग आने के बाद का है, पहले का नहीं। पहले तो उसमें मात्र आगमिक दृष्टि थी। आगमिक दृष्टि के अनुसार दर्शनोपयोग को 'प्रमाण किंवा अप्रमाण' कहने का प्रश्न ही न था। उस दृष्टि के अनुसार दर्शन हो या ज्ञान, या तो वह सम्यक् हो सकता है, या मिथ्या। उसका सम्यक्त्व और मिथ्यात्व भी आध्यात्मिक भावानुसारी ही माना जाता था। अगर कोई आत्मा कम से कम चतुर्थ गुणस्थानक का अधिकारी हो अर्थात् वह सम्यक्त्व प्राप्त हो तो उसका सामान्य या विशेष कोई भी उपयोग मोक्षमार्गरूप तथा सम्यग् माना जाता है। तदनुसार आगमिक दृष्टि से सम्यक्त्वं युक्त आत्मा का दर्शनोपयोग सम्यक् दर्शन है और मिथ्यादृष्टियुक्त आत्मा का दर्शनोपयोग मिथ्यादर्शन है। व्यवहार में मिथ्या, भ्रम या व्यभिचारी समझा जाने वाला दर्शन भी अगर सम्यक्त्वधारी आत्मगत है तो वह सम्यग्दर्शन ही है जबकि सत्य, अभ्रम और अबाधित समझा जानेवाला भी दर्शनोपयोग अगर मिथ्यादृष्टि है तो वह मिथ्यादर्शन ही है। दर्शन के सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्व का आगमिक दृष्टि से जो आपेक्षिक वर्णन ऊपर किया गया है, वह सन्मतिकार अभयदेव ने दर्शन को भी प्रमाण कहा है। इस आधार पर समझना चाहिए तथा उपाध्याय यशोविजय ने संशय आदि नामों को भी सम्यक् दृष्टियुक्त होने पर सम्यक् कहा है-इस आधार पर समझना चाहिए। तार्किक दृष्टि के अनुसार भी जैन परम्परा में दर्शन के प्रमाणत्व या अप्रमात्व के बारे में कोई एकवाक्यता नहीं। सामान्य रूप से श्वेताम्बर हो या दिगम्बर सभी तार्किक दार्शनिक दर्शन को प्रमाण 244 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org