SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * से बाहर ही रखते हैं, क्योंकि वे सभी बौद्धसम्मत निर्विकल्पक में प्रमाणत्व का खण्डन करते हैं और अपने प्रमाण लक्षण में विशेषावयोगबोधक ज्ञान, निर्णय आदि पद दाखिल करके सामान्य उपयोग, दर्शन को प्रमाण का लक्षण का अलक्ष्य ही मानते हैं। 78 इस तरह दर्शन को प्रमाण न मानने की तार्किक परम्परा श्वेताम्बर-दिगम्बर सभी ग्रंथों में साधारण है। माणिक्य नंदी और वादिदेवसूरि ने तो दर्शन को न केवल प्रमाणबद्ध ही रखा है बल्कि उसे प्रमाणभास भी कहा है।179 सन्मति टीकाकार अभयदेव ने दर्शन को प्रमाण कहा है पर वह कथन तार्किक दृष्टि से न समझना चाहिए।180 . - अलबत्ता 'उपाध्याय यशोविजय' के दर्शन संबंधी प्रमाण्य-अप्रामाण्य विचार में कुछ विरोध-सा जान पड़ता है। एक ओर वे दर्शन को व्यंजनावग्रह-अन्तरभावी नैश्चयिक अवग्रहरूप बतलाते हैं। जो मति व्यापार होने के कारण प्रमाण कोटि में आ सकता है और दूसरी ओर वे वादिदेव के प्रमाण-दर्शन को प्रमाण-कोटि की व्याख्या में ज्ञान पद का प्रयोजन बतलाते हुए दर्शन के प्रमाण कोटि से बहिमुख बतलाते हैं। 182 इस तरह उनके कथन में जहाँ एक ओर दर्शन बिल्कुल प्रमाण-बहिर्मुख है, वहीं दूसरी ओर अवग्रह रूप होने से प्रमाण-कोटि में आने योग्य भी है। परन्तु जान पड़ता है कि उनका तात्पर्य कुछ और है। और संभवतः वह तात्पर्य यह है कि सत्यांश होने पर भी नैश्चयिक अवग्रह प्रवृत्ति-निवृत्ति व्यवहारक्षम न होने के कारण प्रमाणरूप गिना ही न जाना चाहिए। इसी अभिप्राय से उन्होंने दर्शन को प्रमाण-कोटि बहिर्भूत बतलाया है। ऐसा मान लेने से फिर कोई विरोध नहीं रहता। आचार्य हेमचन्द्र ने वृत्ति के दर्शन से सम्बन्ध रखने वाले विचार तीन जगह प्रसंगवंश प्रगट किए हैं। आचार्य के उक्त सभी कथनों से फलित यही होता है कि वे जैन परम्परा प्रसिद्ध दर्शन और बौद्ध परम्परा निर्विकल्पक को एक ही मानते हैं और दर्शन को अनिर्णय रूप होने से प्रमाण नहीं मानते तथा उनका यह प्रमाणत्व कथन भी तार्किक दृष्टि से है, आगम दृष्टि से नहीं, जैसा कि अभयदेव भिन्न सभी जैन तार्किक मानते आए हैं। ___ संक्षेप में कह सकते हैं कि हेमचन्द्रोक्त अवग्रह का परिणामीकरण रूप दर्शन ही उपाध्याय का नैश्चयिक अवग्रह समझना चाहिए। हेमचन्द्राचार्य का प्रमाणमीमांसा नाम का न्याय का एक आदर्श ग्रंथ है। इस प्रकार अन्यान्य विद्याओं में अपने योगदान के समान जैन प्रमाण के क्षेत्र में भी अपने योगदान के लिए उपाध्याय यशोविजय जैन दर्शन के इतिहास में सदा याद किये जाते रहेंगे। उपाध्याय यशोविजय ने नव्यन्याय की शैली से न्याय विषयक दो लाख श्लोक प्रमाण रचना की है। प्रमाण, नय, निक्षेप का सुंदर विवेचन जैन तर्क परिभाषा में दिया गया है। अतः निःसंदेह कह सकते हैं कि न्याय के क्षेत्र में उपाध्याय यशोविजय का योगदान अविस्मरणीय, अद्भुत, अलौकिक है। 245 18 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy