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________________ इनके भेद-प्रभेद अनेक हैंद्रव्य निक्षेप आगमतः नो आगमतः सशरीर भव्यशरीर तदव्यतिरिक्त। भाव निक्षेप-पदार्थ का वर्तमान पर्यायाश्रित व्यवहार भाव निक्षेप है। 'विवक्षित क्रिया परिणतो भाव' विवक्षित क्रिया में परिणत वस्तु को भाव निक्षेप कहा जाता है, जैसे-स्वर्ग के देवों को देव कहना। उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्कपरिभाषा में भावनिक्षेप का स्वरूप बताते हुए कहा है विवक्षित क्रियानुभूति विशिष्ट स्वतत्वं यन्निक्षिप्यते स भावनिक्षेपः।” विवक्षित अर्थक्रिया की अनुभूति का विशिष्ट ऐसा वस्तु का स्वतत्त्व दिखाता हो, वह भावनिक्षेप है। भावनिक्षेप भी आगमतः नो आगमतः के भेद से दो प्रकार का है। - * आगमतः-उपाध्याय के अर्थ को जानने वाला तथा उस अनुभव में परिणत व्यक्ति को आगमतः भावनिक्षेप उपाध्याय कहा जाता है। ' * नो आगमतः-उपाध्याय के अर्थ को जानने वाले तथा अध्यापन क्रिया में प्रवृत्त व्यक्ति को नो आगमतः भाव-उपाध्याय कहा जाता है। वर्तमान पर्याय से उपलक्षित द्रव्यभाव कहलाता है। भावनिक्षेप पर भी आगम और नो आगम-इन . दो दृष्टिकोणों से विचार किया गया है। जो आवश्यक को जानता है, उसमें उपयुक्त है। वह ज्ञानात्मक पर्याय की अपेक्षा भाव आवश्यक है। इसी प्रकार जो मंगल शब्द के अर्थ को जानता है तथा उसके अर्थ में उपयुक्त है, वह ज्ञानात्मक पर्याय की अपेक्षा भाव मंगल है। इस विमर्श के अनुसार घट शब्द के अर्थ को जानने वाला और उसमें उपयुक्त पुरुष भावघट कहलाता है। घट पदार्थ का ज्ञाता एवं उपयुक्त पुरुष भी भावघट है तथा घट नाम का पदार्थ जो जल आहरण आदि क्रिया कर रहा है, वह भी भावघट है। चारों ही निक्षेपों को संक्षेप में व्याख्यायित करते हुए कहा है नाम जिणा जिन नामा, ठवणजिणा हुति पडिमाओ। दव्वजिणा, जिन जीवा, भाव जिणा समवसरणत्या।।76 निक्षेप का आधार-निक्षेप का आधार प्रधान-अप्रधान, कल्पित और अकल्पित दृष्टि बिन्दु है। भाव अकल्पित दृष्टि है, इसलिए प्रधान होता है। शेष तीन निक्षेप कल्पित हैं। अतः वे अप्रधान हैं। नाम में पहचान, स्थापना में आकार की भावना होती है, गुण की वृत्ति नहीं होती। द्रव्य मूल वस्तु की पूर्वोत्तर दशा या उससे सम्बन्ध रखने वाली अन्य वस्तु होती है अतः इसमें मौलिकता नहीं होती, भाव मौलिक है। निक्षेप पद्धति जैन आगम एवं व्याख्या ग्रंथों की मुख्य पद्धति रही है। अनुयोग परम्परा में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्पूर्ण व्यवहार का कारण निक्षेप पद्धति है। निक्षेप के अभाव में अर्थ का अनर्थ हो जाता है। संक्षेप में निक्षेप पद्धति भाषा प्रयोग ही वह विद्या है, जिसके द्वारा हम वस्तु का अभ्रान्त ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। 243, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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