SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाण के स्वरूप के समान ही प्रमाण की संख्या के विषय में भी विभिन्न दार्शनिक एकमत नहीं हैं। उनके अनुसार प्रमाणों की तालिका निम्नांकित है चार्वाक एक प्रमाण मानता है-प्रत्यक्ष। बौद्ध और वैशेषिक-प्रत्यक्ष और अनुमान। सांख्य-प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। नैयायिक-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान। मीमांसा प्रभाकर-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति। भट्ट मीमांसक-प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव। पौराणिक-इन छह प्रमाणों के अतिरिक्त संभव, एतिध्य तथा प्रतिभ-इन तीनों प्रमाणों को और मानता है। उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्क परिभाषा में प्रमाण के भेद बताते हुए कहा है ___ 'द्विभेदम्-प्रत्यक्षम् परोक्षं च' प्रमाण के दो भेद हैं-प्रत्यक्ष एवं परोक्ष। आचार्य हेमचन्द्र ने भी प्रमाण के दो भेद बताए हैं'प्रमाणं द्विधाः / / प्रमाण दो प्रकार का है-'प्रत्यक्ष परोक्षं च। प्रत्यक्ष शब्द प्रति उपसर्गपूर्वक अक्ष धातु से बना है। जैन परम्परा में अक्ष शब्द का 'आत्मा' अर्थ मानकर व्युत्पत्ति की गई है-'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा'। अतः आगमिक परिभाषा के अनुसार आत्मा से होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं और जिन ज्ञानों में इन्द्रिय और मन की आवश्यकता रहती है, वे परोक्ष कहलाते हैं। प्रत्यक्ष शब्द की व्युत्पत्ति में 'अक्ष' पर का इन्द्रिय अर्थ मानने की परम्परा सभी वैदिक दर्शनों तथा बौद्ध दर्शन में एक-सी है। उनमें से किसी दर्शन में भी 'अक्ष' शब्द का आत्मा अर्थ मानकर व्युत्पत्ति नहीं की गई है। अतः न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, बौद्ध-मीमांसा आदि दर्शनों के अनुसार इन्द्रिय और अर्थ के सन्निकर्ष से उत्पन्न होने वाला ज्ञान प्रत्यक्ष है। जैनेतर दर्शनों में प्रसिद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण जैन आगमिक परम्परा में परोक्ष प्रमाण कहलाता था। जैन तार्किकों के सामने इससे कुछ कठिनाई आई और उन्होंने लोक-व्यवहार की अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए दार्शनिक चर्चा-परिचर्चाओं में संभागिता के लिए इन्द्रिय प्रत्यक्ष का संव्यवहार प्रत्यक्ष की संज्ञा प्रदान की। सर्वप्रथम जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण तथा अकलंक ने संव्यवहार प्रत्यक्ष के रूप में इन्द्रिय प्रत्यक्ष को प्रतिष्ठापित कर आगमिक और दार्शनिक युग का समन्वय किया। सर्वप्रथम आचार्य अकलंक ने प्रत्यक्ष को परिभाषित किया-'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानम्। आचार्य विद्यानंदी, माणिक्यनंदी, वादिदेव, हेमचन्द्र आदि ने आचार्य अकलंक का ही अनुकरण करते हुए विशद ज्ञान को ही प्रत्यक्ष कहा, किन्तु उन्होंने विशदता का तात्पर्य क्या है, यह स्पष्ट नहीं किया। विशदता को स्पष्ट करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा 'प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशधम्'।156 इस सूत्र में उन्होंने विशदता के दो अर्थ किये-जिस ज्ञान में आदि प्रमाणों की आवश्यकता न हो एवं जो इन्द्रन्तया अर्थात् 'यह है' इस तरह से स्पष्ट प्रतिभासित होता है। 230 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy