SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रत्यक्ष प्रमाण का महत्त्व अन्य प्रमाणों की तुलना में ही भलीभांति समझा जा सकता है, क्योंकि अन्य प्रमाण अपने अस्तित्व के लिए कई दृष्टियों से प्रत्यक्ष पर आश्रित हैं, जबकि प्रत्यक्ष किसी अन्य प्रमाण पर निर्भर नहीं है। अन्य प्रमाणों की सत्यता के सम्बन्ध में संदेह उत्पन्न होने पर उसका निवारण भी प्रत्यक्ष से ही होता है, उसके अतिरिक्त कई अवसरों पर लोगों को जो भ्रम या संदेह हुआ करता है, उसके निवारण का एकमात्र उपाय भी प्रत्यक्ष ही है। मानव की समस्त ज्ञान-प्रक्रियाएँ किसी-न-किसी अंश से प्रत्यक्ष पर ही आधारित हैं। दार्शनिक - जगत् में प्रत्यक्ष ही एकमात्र ऐसा प्रमाण है, जिसे सभी ने एकमत से स्वीकार किया है। विचार की प्रारम्भिक वेला में प्रत्यक्ष मात्र का ही अस्तित्व स्वीकार किया जाता था। अक्षपाद ने पदार्थों के तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस प्राप्ति का उल्लेख किया और तत्त्वों में प्रमाण का सर्वप्रथम उल्लेख किया है। न्यायशास्त्र में प्रमाण संबंधी चर्चा भी प्रत्यक्ष के विश्लेषण से ही आरम्भ होती है। अन्य प्रमाणों के प्रामाण्य की पुष्टि हेतु भी प्रत्यक्ष की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए कहा जा सकता है कि प्रमाणमीमांसा का आरम्भ बिन्दु एवं अन्तिम बिन्दु प्रत्यक्ष ही है। परोक्ष प्रमाण __ प्रमेय का ज्ञान प्रमाण से होता है। प्रमेय का अस्तित्व स्वभाव सिद्ध है किन्तु उसके अस्तित्व का बोध प्रमाण के द्वारा ही संभव है। 'मानाधीना हि मेयसिद्ध'-यह न्यायशास्त्र का सार्वभौम नियम है। परोक्ष प्रमाण को परिभाषित करते हुए आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं- 'अविशद् परोक्षम्। अविशद् परोक्ष प्रमाण है। प्रमाण के क्षेत्र में प्रत्यक्ष, सर्वदर्शन सम्मत शब्द है, किन्तु परोक्ष शब्द का प्रयोग मात्र जैन तार्किकों . ने किया है। प्रत्यक्ष प्रमाण विशद् होता है। उनकी विशदता का तात्पर्य है-इदन्तया प्रतिभास एवं प्रमाणांत ..की अनपेक्षा। इसके विपरीत परोक्ष में इन्द्रन्तया प्रतिभास नहीं होता तथा अन्य प्रमाण की भी आवश्यकता होती है। उपाध्याय यशोविजय ने जैन तर्क परिभाषा में परोक्ष का लक्षण बताते हुए कहा है कि 'इन्द्रिय सन्निकर्षादि लक्षण व्यवधानतो वर्तते-जायते इति परोक्ष ज्ञानम्' / / 58 ... आगमिक परम्परा के अनुसार इन्द्रिय एवं मन की सहायता से आत्मा को जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष है अतः आगम परम्परा में संव्यवहार प्रत्यक्ष वस्तुतः परोक्ष ही है। आगम परम्परा के अनुसार इन्द्रियजन्य और मनोजन्य ज्ञान, जिन्हें इतर दर्शनों में इन्द्रिय प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष कहा गया है, वस्तुतः परोक्ष ही है। स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति और आगम-ये सभी ज्ञान भी परसापेक्ष होने से परोक्ष में परिगणित हैं। इस प्रकार परोक्ष का क्षेत्र बहुत विस्तृत और व्यापक है। परोक्ष प्रमाण के भेदों का उल्लेख करते हुए आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं _ 'स्मृति प्रत्यभिज्ञानो हानुमानागमाक्तदविधयः' / / 39 ___ जैन दर्शन के अनुसार परोक्ष प्रमाण के पांच प्रकार माने गये हैं-स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम। स्मृति धारणामूलक, प्रत्यभिज्ञा स्मृति एवं अनुभावमूलक, तर्क प्रत्यभिज्ञामूलक तथा अनुमान तर्क निर्णात साधनामूलक होते हैं, इसलिए ये परोक्ष हैं। आगम वचनमूलक होता है, इसलिए परोक्ष है। 231 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy