________________ पानी से प्यास बुझती है, स्नान से दाह शान्त होता है, इत्यादि ज्ञानों के प्रामाण्य की परीक्षा करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि इनकी प्रामाणिकता प्रतिदिन के अभ्यास से स्वतः ज्ञात हो जाती है। परतः प्रामाण्य विषय की अपरिचित दशा में प्रामाण्य का निश्चय परतः होता है। ज्ञान की कारण सामग्री से उसकी सच्चाई का पता नहीं लगता तब अन्य साधनों की सहायता से उसकी प्रामाणिकता जानी जाती है, यही परतः प्रामाण्य है। जैसे-कोई पहले सुने हुए चिन्हों के आधार पर अपने मित्र के घर के पास पहुंच जाता है, फिर भी उसे यह संदेह हो सकता है कि यह घर मेरे मित्र का है या किसी दूसरे का? उस समय किसी जानकार व्यक्ति से पूछने पर प्रथम ज्ञान की सच्चाई मालूम हो जाती है। यहाँ ज्ञान की सच्चाई का पता दूसरे की सहायता से हुआ, इसलिए यह परतः प्रामाण्य है। - अनुमान का प्रामाण्य स्वतः होता है, परतः नहीं होता, क्योंकि अनुमान का उत्थान सुनिश्चित साधन से होने के कारण उसमें शेष की संभावना ही नहीं रहती, अतः अनुमान का प्रामाण्य स्वतः होता है। . . आगम प्रमाण का प्रामाण्य स्वतः भी होता है और परतः भी होता है। आगम में कथित वे बातें, जिनकी प्रामाणिकता प्रत्यक्ष से जानी जा सकती है, किन्तु दुर्जेय होने के कारण संवादी प्रमाण के अधीन होने से परतः है तथा कुछ बातों की संवादी प्रमाण के बिना भी आप्तकथित होने मात्र से ही प्रामाणिकता स्वीकार कर ली जाती है। अतः यहाँ आगम का प्रामाण्य स्वतः है। . जैन की एकान्ततः प्रामाण्य न स्वतः इष्ट है और न परतः। इसलिए वह एकान्त रूप से प्रामाण्य को स्वतः मानने वाले मीमांसकों का तथा एकान्त रूप से परतः मानने वाले न्याय-वैशेषिकों का समर्थन न कर अनेकान्त का अवलम्बन लेकर प्रमाण के प्रामाण्य को अभ्यास दशा में स्वतः एवं अनभ्यास दशा में परतः स्वीकार करते हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण एवं परोक्ष प्रमाण दर्शन जगत् में प्रमाण-स्वरूप की भांति प्रमाण के भेदों में भी मतभेद पाया जाता है। जैन दर्शन प्रमाण के दो भेद-प्रत्यक्ष और परोक्ष स्वीकार करता है। प्रत्यक्ष प्रमाण भी मुख्य प्रत्यक्ष और सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का है। इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना सीधा आत्मा से होने वाला ज्ञान है। इसे अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। इसके तीन भेद हैं-अवधि, मनःपर्यव और केवल। प्रमाण प्रत्यक्ष परोक्ष मुख्य सांव्यावहारिक अवधि मनःपर्यय केवल अवग्रह ईहा अपाय धारणा 229 17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org