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________________ स्वयं भी प्रकाशित होते हैं। उनके लिए ज्ञानान्तर की आवश्यकता मानवी को युक्तियंगत नहीं है। मीमांसकादिक की उक्त मान्यता का निरसन करने के लिए एवं ज्ञान के स्वप्रकाशत्व की सिद्धि के लिए जैन दर्शन अनुमान प्रमाण देता है। 'ज्ञानं स्वव्यवसायि पर व्यावसायि त्वान्यथाऽनुपपतेः प्रदीपवत्' 17-जो स्व को जानता है, वही पर को जानता है। जो स्व को नहीं जानता, वह पर को भी नहीं जानता, जैसे दीपक-इस तरह से सिद्ध होती है कि ज्ञान स्व-पर-उभय का निश्चयात्मक ज्ञान है। जैन परम्परा में सम्यज्ञान को प्रमाण माना है और उसे स्व-पर-व्यवसायात्मक बताया गया है। यथार्थ ज्ञान प्रमाण है किन्तु प्रश्न होता है कि ज्ञान की यथार्थता का बोध कैसे होता है? ज्ञान स्वसंवेदी होता है। अतः ज्ञान को अपना ज्ञान तो हो जाता है पर मैं सम्यक् हूँ या असम्यक् हूँ, इसकी अनुभूति ज्ञान को किस माध्यम से होती है, स्वतः होती है या परतः। इसका समाधान देते हुए आचार्य हेमचन्द्र लिखते हैं ___'प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा' 128–ज्ञान की प्रामाणिकता का निश्चय कभी स्वंतः और कभी . परतः होता है। प्रामाण्यवाद की चर्चा दार्शनिक क्षेत्र की प्रमुख चर्चा रही है। प्रामाण्य का तात्पर्य है-प्रमाण के . द्वारा जिस पदार्थ को जिस रूप में जाना गया है, उसका उसी रूप में प्राप्त होना, उसमें व्यभिचार का न होना। ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाण्य-अप्रामाण्य की चर्चा का प्रारम्भ वेदों को प्रमाण मानने और न मानने वाले दो पक्षों से होता है। जब जैन, बौद्ध आदि विद्वानों ने वेदों के प्रामाण्य का निषेध किया, तब वेद प्रामाण्यवादी न्याय-वैशेषिक, मीमांसक विद्वानों ने वेदों के प्रामाण्य का समर्थन करना शुरू किया। प्रारम्भ में प्रामाण्य के स्वतः-परतः की चर्चा शब्द (आगम) प्रमाण तक ही सीमित थी, किन्तु एक बार दार्शनिक क्षेत्र में प्रवेश करने के बाद यह चर्चा सभी प्रमाणों के सन्दर्भ में होने लगी। प्रामाण्य-अप्रामाण्य को लेकर दार्शनिक क्षेत्र में चार विचारधाराएँ प्रसिद्ध रही हैं सांख्य दर्शन-ज्ञान का प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य स्वतः होता है। न्याय दर्शन-ज्ञान का प्रामाण्य तथा अप्रामाण्य परतः होता है। बौद्ध दर्शन-ज्ञान का प्रामाण्य परतः तथा अप्रामाण्य स्वतः होता है। , मीमांसा दर्शन-ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः तथा अप्रामाण्य परतः होता है। जैन मान्यता शान्तरक्षित कथित बौद्ध पक्ष के समान है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी लिखा है- . 'प्रामाण्यनिश्चयः स्वतः परतो वा' / प्रमाण्य का निश्चय अभ्यास दशा में स्वतः और अनभ्यास दशा में परतः होता है। स्वतः प्रमाण्य निश्चय विषय की परिचित दशा में ज्ञान की स्वतः प्रामाणिकता होती है। इसमें प्रथम ज्ञान की सच्चाई जानने के लिए विशेष कारणों की आवश्यकता नहीं होती। परिचित वस्तुओं के ज्ञान की सत्यता एवं असत्यता का बोध तत्काल हो जाता है। जैसे-हथेली का ज्ञान, स्नान-पान आदि अर्थ क्रिया का ज्ञान। 228 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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