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________________ * व्यवस्था के बीच समन्वय हेतु बना। सिद्धसेन और अकलंक ने प्रमाण को स्वतंत्र रूप से प्रतिष्ठित कर दिया। वाचक उमास्वाति का समन्वय इन सूत्रों में प्रस्तुत है मतिश्रुतावधिमनः पर्यय केवलानि ज्ञानम् / तत् प्रमाणे। आधे परोक्षम्। प्रत्यक्षमन्यत्। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल-ये पाँच ज्ञान हैं। ये ज्ञान ही प्रमाण हैं। . मति और श्रुत-ये दो ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। अवधि, मनःपर्यव और केवल-ये तीन ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। प्राचीन परम्परा में ज्ञान का वही अर्थ था, जो दर्शनयुग में प्रमाण का किया गया। वाचक उमास्वाति ने प्रमाण का लक्षण सम्यग्ज्ञान किया है। सिद्धसेन दिवाकर ने न्यायावतार की रचना की है। जैन परम्परा में न्यायशास्त्र का यह पहला ग्रन्थ है। आचार्य समन्तभद्र ने न्यायशास्त्र का कोई स्वतंत्र ग्रन्थ नहीं लिखा, किन्तु आप्तमीमांसा तथा स्वयम्भू स्तोत्र में उन्होंने न्यायशास्त्रीय विषयों की चर्चा की। उन्होंने प्रमाण का स्व-पर-प्रकाश के रूप में प्रयोग किया है। उपाध्याय यशोविजय ने अनेक कागज लिखे थे। इनमें दूसरे पत्र (पृ. 114) में निम्न उल्लेख मिलता है "न्यायग्रन्थ 2 लक्ष कीधो छई" |102 - इससे स्पष्ट होता है कि उपाध्यायजी की न्याय-विषयक रचना का परिमाण दो लाख प्रमाण है। * न्याय के क्षेत्र में उपाध्यायजी ने जितना लिखा है, उतना उनके पूर्ववर्ती कोई आचार्यों ने नहीं लिखा। इनमें भी नव्यन्याय की शैली से उपाध्यायजी ने लिखकर न्याय के क्षेत्र में चार चांद लगा दिये हैं। अनेकान्त व्यवस्था और दर्शन समन्वय तीसरी उपलब्धि है दर्शन समन्वय और उसके अनेकान्त की व्यवस्था का विकास और उसका व्यापक प्रयोग। उपनिषद् काल से दो प्रश्न चर्चित होते रहे हैं1. क्या पूर्ण सत्य जाना जा सकता है? 2. क्या पूर्ण सत्य की व्याख्या की जा सकती है? इन पर विभिन्न दर्शनों ने विभिन्न समाधान प्रस्तुत किए हैं। जैन दर्शन ने भी इसका समाधान किया है। प्रथम प्रश्न का समाधान ज्ञानमीमांसा के आधार पर दिया और दूसरे का समाधान अनेकान्त के आधार पर दिया। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने समन्वय की धारा को इतना विशाल बना दिया कि उसमें स्वदर्शन और परदर्शन का भेद परिलक्षित नहीं होता। उनका तर्क है कि मिथ्यातत्त्वों का समूह सम्यक्त्व है। अन्य दर्शन सम्यग् दृष्टि के लिए उपकारक होने के कारण वस्तुतः वह स्व-दर्शन ही है। सामान्यवाद, विशेषवाद, नित्यवाद, क्षणिकवाद-ये सब सम्यक्त्व की महाधारा के कण हैं। इन सबका समुदित होना ही सम्यक्त्व 223 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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