________________ में दिङ्नाग की धर्मकीर्ति की मान्यताओं की पुष्टि की। वाचस्पति मिश्र (ई. 800) ने न्यायवार्तिक की टीका में बौद्धों के आक्षेपों का निरसन कर उद्योतकर की मान्यताओं का समर्थन किया। ईसा की तीसरी शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक बौद्धों और नैयायिकों में खंडन-मंडन का तीव्र संघर्ष चला। इस संघर्ष में न्यायशास्त्र के नये युग का सूत्रपात हुआ। जहाँ दर्शनों का परस्पर संघर्ष होता है। सब दार्शनिक अपने-अपने मतों की स्थापना और दूसरों के मतों का निरसन करते हैं, वहाँ आगम का गौण और हेतु का मुख्य होना स्वाभाविक है। दार्शनिक साध्य की सिद्धि के लिए आगम का समर्थन नहीं चाहता, वह हेतु चाहता है। आगम और हेतु का समन्वय ___दर्शनयुगीन जैन न्याय की कुछ विशिष्ट उपलब्धियां हैं। पहली उपलब्धि है-आगम और हेतु का समन्वय। आगम युग में अन्तिम प्रामाण्य आगम ग्रन्थ या व्यक्ति का माना जाता था। मीमांसक अन्तिम प्रामाण्य वेदों को मानते हैं। जैन परिभाषा में आगम का अर्थ होता है-पुरुष। वह पुरुष जिसके सब दोष क्षीण हो जाते हैं, जो वीतराग या केवली बन जाता है। स्थानांग सूत्र में पांच व्यवहार निर्दिष्ट हैं-आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत। केवलज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, दशपूर्वी और अभिन्नदशपूर्वी-ये छह पुरुष आगम होते हैं। आगमयुग में आगम पुरुष का और उसकी अनुपस्थिति में श्रुत का प्रामाण्य था। दर्शन युग में आगम का प्रामाण्य गौण, हेतु या तर्क का प्रामाण्य मुख्य हो गया। जब तक केवलज्ञानी और विशिष्ट ज्ञानसम्पन्न आचार्य थे तब तक जैनपरम्परा में हेतुवाद या प्रमाणमीमांसा का विकास नहीं हुआ। ईसा की पहली शताब्दी में आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार सूत्र में प्रमाण की विशद् चर्चा की है। इससे पूर्ववर्ती साहित्य में प्रमाण की इतनी विशद् चर्चा प्राप्त नहीं होती। दर्शनयुग में जब हेतुवाद की प्रमुखता हुई और विशिष्ट श्रुतधर आचार्यों की उपस्थिति नहीं रही तब जैन आचार्य भी हेतुवाद की ओर आकृष्ट हुए। इसका संकेत नियुक्ति साहित्य में मिलता है। नियुक्तिकार का निर्देश है कि मन्दबुद्धि श्रोता के लिए उदाहरण और तीव्रबुद्धि श्रोता के लिए हेतु का प्रयोग करना चाहिए। ___आचार्य सिद्धसेन ने सन्मति” में आगम और हेतुवाद-इन दो पक्षों की स्वतन्त्रता स्थापित की और यह बतलाया कि आगमवाद के पक्ष में आगम का और हेतुवाद के पक्ष में हेतु का प्रयोग करने वाला तत्त्व का सम्यक् व्याख्याता होता है तथा आगमवाद के पक्ष में हेतु का और हेतुघाद के पक्ष में आगम का प्रयोग करने वाला तत्त्व का सम्यक् व्याख्याता नहीं होता। अमूर्त तत्त्व, सूक्ष्म मूर्त तत्त्व और सूक्ष्म पर्याय-ये सब आगम के प्रामाण्य से ही सिद्ध हो सकते हैं। अतीन्द्रिय पदार्थ आगम साबित पदार्थ होते हैं। ज्ञान का प्रमाणीकरण दूसरी उपलब्धि है-ज्ञान का प्रमाण के रूप में प्रस्तुतीकरण। प्रमाण समर्थित दर्शनयुग में जब सभी दार्शनिक प्रमाण का विकास कर रहे थे, उस समय समन्वय की दृष्टि से जैन आचार्यों के सामने भी प्रमाण के विकास का प्रश्न उपस्थित हुआ। इस प्रश्न का समाधान सर्वप्रथम वाचक उमास्वाति ने किया। उन्होंने ज्ञान और प्रमाण का समन्वय प्रस्तुत किया। यह आगमयुगीन ज्ञान परम्परा और प्रमाण 222 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org