________________ प्रमाण-मीमांसा जैन न्याय का उद्भव एवं विकास जैन न्याय तीन युगों में विभक्त होता है• आगमयुग का जैन न्याय, * दर्शनयुग का जैन न्याय, * प्रमाण-व्यवस्थायुग का जैन न्याय। महावीर का अस्तित्व काल ई.पू. 599-527 है। उस समय से ईसा की पहली सदी तक का युग आगमयुग है। ईसा की दूसरी सदी से दर्शन युग का प्रारम्भ होता है। ईसा की आठवीं-नौवीं सदी से प्रमाण व्यवस्था युग का प्रारम्भ होता है। आगमयुग का जैन न्याय आगम युग के न्याय में ज्ञान और दर्शन की चर्चा विशद् प्राप्त है। आवृति चेतना के दो रूप हैं-लब्धि और उपयोग। ज्ञेय को जानने की क्षमता का विकास लब्धि है और जानने की प्रवृत्ति का नाम उपयोग है। उपयोग दो प्रकार का होता है-आकार और अनाकार। आकार का अर्थ है-विकल्प। आकार सहित चेतना की प्रवृत्ति आकार उपयोग कहलाती है। इसे ज्ञान कहा जाता है। आकार रहित चेतना की प्रवृत्ति अनाकार उपयोग कहलाती है। इसे दर्शन कहा जाता है। जैन आगमों में सविकल्प और अर्थ-भेद नहीं है। दर्शन चेतना निर्विकल्प और ज्ञानचेतना सविकल्प होती है। आत्मा की चेतना एक और अखण्ड है। वह सूर्य की भांति सहज प्रदीप्त है। उसके दो रूप होते हैं-अनावृत्त और आवृत्त। पूर्णतया अनावृत्त चेतना का नाम केवलज्ञान है। यह स्वभाव ज्ञान है। इसे निरूपाधिक ज्ञान भी कहा जाता है। अनावृत्त चेतना की अवस्था में जानने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए, इसलिए वह ज्ञान सहज होता है। आवृत्त अवस्था में भी चेतना सर्वथा नहीं होती। वह कुछ-न-कुछ अनावृत्त रहती ही है। फिर भी जीव-अजीव का विभाग हो सके, इतना चैतन्य निश्चित अनावृत्त रहता है। यह ज्ञान विभावज्ञान या सोपाधिक ज्ञान है। हम ज्ञान को जन्म के साथ लाते हैं और मृत्यु के साथ उसे ले जाते हैं। आत्मा के साथ उसका सम्बन्ध इस शरीर जैसा नहीं है, जो जन्म के साथ बने और मृत्यु के साथ छूट जाए। आत्मा उस कोरी कागज जैसा नहीं है, जिस पर अनुभव अपने संवेदन और स्वसंवेदन * रूपी अंगुलियों से ज्ञान रूपी अक्षर लिखता रहे। . ज्ञान का मूल स्रोत है उत्पत्ति ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है और यह न्यूनाधिक मात्रा में अनावृत्त रहता है। इस आधार पर कहा जाता है कि ज्ञान का मूल स्रोत चैतन्य की अनावृत्त अवस्था है। इसके अतिरिक्त तीन स्रोत और हैं-इन्द्रिय, मन और आत्मा। हमारा ज्ञान इन्द्रिय विकास के आधार पर होता है। ज्ञान विकास की तरतमता के आधार पर शारीरिक इन्द्रियों की रचना में भी तरतमता होती है। मानसिक विकास भी चैतन्य विकास पर निर्भर है। इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना होने वाला केवल आत्मा पर निर्भर होता है। इस प्रकार चैतन्य विकास की दृष्टि से ज्ञान के मूल स्रोत तीन हैं-इन्द्रिय, मन और आत्मा। 219 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International