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________________ अज्ञानी जीव कर्मों को करोड़ों वर्षों में भी क्षय नहीं कर सकता। उन्हीं कर्मों को ज्ञानी के ज्ञान के द्वारा ध्यान की श्रेणी में चढ़कर ध्यानाग्नि द्वारा एक श्वासोच्छ्वास में नष्ट कर देता है। ज्ञान यह आत्मा का निजगुण है, निजगुण प्राप्ति से बढ़कर अन्य सुख की कल्पना करना कल्पना मात्र ही है। सुख और दुःख के हेतुओं से अपने आपको परिचित करना ही ज्ञान है। ___ ज्ञान के द्वारा तत्त्व का निर्णय हठाग्रह और सदाग्रह से युक्त होकर करता है तथा वह तत्त्वनिर्णय रूप ज्ञान ही वैराग्य का भी कारण बनता है। उपाध्याय यशोविजय ने भी अपने जीवन में ज्ञान के चिन्तन से विवेक दीप को प्रज्वलित करके ज्ञान के सौष्ठव से स्वयं एवं अन्य आत्माओं को जागृत किये। सारांश ज्ञानमीमांसा अर्थात् जीवन के ज्ञान के प्रकाश पुञ्ज से आलोकित करना। आत्मा के आन्तरिक गुणों में अवगाहन करना है। ज्ञान की विचारणा तभी ही शक्य है, जब व्यक्ति बाह्य आडम्बरी चिन्ताओं एवं कार्य-कलापों से अपने आपको दूर रखता है और ज्ञान की अगाध गहराई में तल्लीन निमग्न हो जाता है। जो गहराई में डूबते हैं, वही चिन्तन के मोती प्राप्त करते हैं। उपाध्याय यशोविजय ज्ञान के आगध चिन्तन में डूब गये। तत्पश्चात् उनको जो सिद्धान्त रूपी रत्न प्राप्त हुए, उनको शास्त्रों में निबद्ध किये। उन्होंने अपने चिन्तन के मन्थन द्वारा जो ज्ञान की व्युत्पत्ति की वह बहुत ही सचोट एवं सुगम्य है, जो अनेक शास्त्रों में मिलती है। जिस व्युत्पत्ति का उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने भी स्वीकारी है तथा जो आज भी विद्वत्तजनों के लिए मननीय एवं प्रसंसनीय बनी है। ज्ञान के भेद-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव एवं केवलज्ञान के भेद एवं प्रभेदों का विस्तृत विवेचन और आवरणीय कर्मरूप कारण पांच होने से ज्ञान के भी भेद पांच बताये हैं, क्योंकि कारण के बिना कार्य की सिद्धि शास्त्रों में स्वीकृत नहीं की है। प्रभेदों में मतिज्ञान के 28, श्रुतज्ञान के 14, और अवधि ज्ञान के 20, मनःपर्यवज्ञान के 6 और केवलज्ञान के 2 परमार्थतः भेद नहीं हैं, उपचार से भेद किये हैं। वैसे ज्ञान के सभी भेद-प्रभेद केवलज्ञान में अन्तर्निहित हो जाते हैं लेकिन उपाध्यायजी ने ऐसा न करके सभी के भिन्न-भिन्न भेदों-प्रभेदों की प्ररूपणा करके सभी का अपना निजी अस्तित्व अवस्थित रखने का प्रयास किया है। अन्यथा आगमों ने जो तीर्थंकर प्ररूपित एवं गणधरों द्वारा रचित पांच ज्ञान के वचन के साथ विरोध आ जाता है, ऐसा न हो, इस बात को ध्यान में रखते हुए पंचज्ञान की सिद्धि जो ज्ञानबिंदु जैसे ग्रंथ में की, वह सार्थक सिद्ध होती है। ज्ञान के कुंभ में भी महान् रहस्य छुपा हुआ है। जैसे कि व्यवहार में हम देखते हैं कि प्रत्येक शिक्षण पद्धति का क्रम होता है, उसी प्रकार यहाँ भी ज्ञान को आगे-पीछे रखने का मुख्य कारण एक-एक ज्ञान की उत्तरोत्तर प्रकृष्टता बढ़ती जाती है तथा दूसरी तरफ एक ज्ञान दूसरे ज्ञान के साथ स्वामी, काल, स्थिति आदि साम्यता है। अगर क्रम का प्रतिबंध नहीं हो तो सभी अस्त-व्यस्त हो जायेगा। सभी ज्ञानों में प्रकृष्ट एवं सभी ज्ञानों के बाद उत्पन्न होने के कारण केवलज्ञान सब से अन्तिम रखा गया है तथा मुक्त अवस्था में भी इसी की सर्वोत्तमता अविचल रहती है। इस प्रकार दीपक की भांति ज्ञान भी स्वप्रकाशित होकर पर को प्रकाशित करता है और वही प्रमाण की कसौटी पर सत्य साबित हुआ है तथा ज्ञान का वैशिष्ट्य सम्यग् यप से समुज्ज्वल हुआ है। 218 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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