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________________ ज्ञान की उत्पत्ति अन्तरंग और बहिरंग-दोनों कारणों से होती है। बाहरी पदार्थों का उचित सामीप्य होने पर ज्ञान उत्पन्न होता है तो आन्तरिक मनन के द्वारा भी ज्ञान उत्पन्न होता है। ज्ञान की सीमा इन्द्रियाँ पाँच हैं-स्पर्श, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत। प्रत्येक इन्द्रिय में एक-एक विषय को जानने की क्षमता होती हैइन्द्रिय विषय स्पर्शन स्पर्श रसन् रस घ्राण गंध चक्षु रूप श्रोत शब्द संक्षेप में कह सकते हैं कि इन्द्रिय ज्ञान, मानसिक ज्ञान और प्रज्ञा यह मतिज्ञान की सीमा है। अध्ययन से प्राप्त ज्ञान और प्रायोगिक ज्ञान की निश्चयकता श्रुतज्ञान की सीमा है। मूर्त द्रव्यों का साक्षात् ज्ञान करना अवधिज्ञान की सीमा है। मन का साक्षात् ज्ञान करना अवधिज्ञान की सीमा है। केवलज्ञान सर्वथा अनावृत्त ज्ञान है, इसलिए उसमें सब द्रव्यों और पर्यायों की साक्षात् करने की . क्षमता है। यही इसकी सीमा है। इन्द्रियज्ञान और प्रमाणशास्त्र __ अतीन्द्रिय ज्ञान एक विशिष्ट उपलब्धि है। वह सार्वजनिक नहीं है। इसलिए वह न्यायशास्त्र का बहुचर्चित भाग नहीं है। उसका बहुचर्चित भाग इन्द्रिय ज्ञान है। मतिज्ञान क्रमिक होता है। उसका क्रम यह है 1. विषय और विषयी का सन्निपात, 2. दर्शन-निर्विकल्प बोध सत्ता मात्र का बोध, 3. अवग्रह-'कुछ है' की प्रतीति, 4. ईहा-यह होना चाहिए इस आकार का ज्ञान, 5. अवाय-यही है इस प्रकार का निर्णय, 6. धारणा-निर्णित विषय की स्थिरता, वासना, संस्कार, 7. स्मृति-संस्कार के जागरण से होने वाला वह इस आकार का बोध, 8. संज्ञा-स्मृति और प्रत्यक्ष से होने वाला 'यह वही है' इस प्रकार का बोध, 9. चिन्ता-चिन्तन मन के होने पर ही होता है इस प्रकार के नियमों का निर्णायक बोध, तर्क या ऊहा, 10. आभिनिबोध-हेतु से होने वाला साध्य का ज्ञान, अनुमान। 220 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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