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________________ उक्त व्याख्याओं के सन्दर्भ में सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की व्याख्या इस प्रकार फलित होती है 1. सर्व द्रव्य का अर्थ है-मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को जानने वाला। 2. सर्व क्षेत्र का अर्थ है-सम्पूर्ण आकाश को साक्षात् जानने वाला। 3. सर्व काल का अर्थ है-वर्तमान व अनन्त अतीत और अनागत को जानने वाला। 4. सर्व भाव का अर्थ है-गुरुलघु और अगुरुलघु सब पर्यायों को जानने वाला। केवलज्ञान के भेद केवलज्ञान आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव में वस्तुतः भेद नहीं होता। वह क्षायिक ज्ञान है। क्षयोपशम से उत्पन्न अवस्थाओं में न्यूनाधिकता होती है पर क्षायिक भाव पूर्ण, अखण्ड एवं सकल होता है। अतः उसमें भेद नहीं होता। परन्तु नन्दी, प्रज्ञापना, स्थानांग आदि सूत्रों में केवलज्ञान के भी भेद किये गए हैं। इस सन्दर्भ में यह मननीय है कि वस्तुतः ये भेद केवलज्ञान के न होकर केवलज्ञानी के हैं, क्योंकि ज्ञान का ज्ञानी में ज्ञान का उपचार करने से केवलज्ञान के दो प्रकार होते हैं केवलज्ञान भवस्थ सिद्ध सयोगी अयोगी अनंतर परस्पर सिद्ध के 15 भेद नंदी सूत्रकार के स्वोपज्ञ है या इनका कोई प्राचीन आधार है। प्रतीत होता है यह परस्पर प्राचीन है। उमास्वाति ने सिद्ध की व्याख्या में बारह अनुप्रयोग द्वारा बतलाए हैं। वे वस्तुतः / सूत्र में निर्दिष्ट 15 भेदों की अपेक्षा अधिक स्पष्ट हैं। स्थानांग में सिद्ध के 15 प्रकारों का उल्लेख मिलता है। प्रज्ञापना में भी इनका उल्लेख है। स्थानांग संकलन सूत्र है इसलिए इसकी प्राचीनता के बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। प्रज्ञापना नंदी - की अपेक्षा प्राचीन है। इसलिए प्रज्ञापना के पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र और उसके पश्चात् नंदी में 15 भेदों का उल्लेख देखा जाता है। हो सकता है श्यामार्य ने किसी प्राचीन आगम से उनका अवतरण किया है। उपाध्याय यशोविजयजी ने ज्ञानबिन्दु' में केवलज्ञान-दर्शन के विषय में मुख्यतः सिद्धसेन दिवाकर के ही मत का अवलम्बन लिया है। इसके साथ ही उन्होंने भिन्न-भिन्न नय दृष्टियों से उनका समन्वय करते हुए कहा कि व्यवहार नय की अपेक्षा से मल्लवादी का युगपद उपयोगवाद ऋजुसूत्र। नय की अपेक्षा से जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का क्रमिक पक्ष और अभेद प्रधान संग्रहनय की अपेक्षा से सिद्धसेन दिवाकर का अभिन्नोपयोगवाद युक्तिसंगत है। इस प्रकार अनेक कारणों से केवलज्ञान की सर्वोत्तमता सिद्ध होती है। 213 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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