________________ ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान का भेदाभेद ज्ञाता अर्थात् जानने वाला। ज्ञान अर्थात् जानने का साधन (कारण या साधकतम)। ज्ञेय अर्थात् ज्ञान का विषय। ज्ञाता अर्थात् जानने वाला। आत्मज्ञान का शाब्दिक अर्थ है-जानना और ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य विषय आत्मा जानने वाली है अर्थात् आत्मा ज्ञापक है और ज्ञान ही उसका स्वभाव है। ज्ञान आत्मा से अपृथक् ही है, किन्तु ज्ञेय से भिन्न है। ज्ञाता और ज्ञेय दोनों सत्ता की अपेक्षा से अलग-अलग हैं। उपाध याय यशोविजयजी ज्ञानसागर में कहते हैं शुद्धात्माद्रव्य में वाऽह, शुद्धज्ञान गुणो मम। मैं शुद्ध आत्मद्रव्य हूँ, और ज्ञान मेरा गुण है अर्थात् आत्मा गुणी है और ज्ञान गुण है। गुण और गुणी के बीच में हमेशा अभेद होता है। गण आधार के बिना स्वतंत्र नहीं रह सकते हैं। अतः गा गुणी से अभिन्न होकर ही रहता है। उपाध्याय यशोविजय ने आत्मा और गुणों में अभिन्नता बताते हुए कहा है, जैसे-रत्न की प्रभा, निर्मलता और शंकित रत्न से भिन्न नहीं है, उसी प्रकार ज्ञान, दर्शन आत्मा से भिन्न नहीं है, जो निम्न है प्रभानैर्मल्य शकतीनां तथा रत्नात्र भिन्नता। ज्ञान दर्शन चारित्र लक्षणानाः तथात्मनः।।। ज्ञाता और ज्ञान दोनों में भिन्नता नहीं है। यह और उसके तन्तु दोनों में जैसे तादात्म्य है, उसी प्रकार आत्मा और ज्ञान में तादात्म्य है। दोनों को एक-दूसरे से पृथक् नहीं कर सकते हैं। व्यवहार में हम कहते हैं कि 'आत्मा का ज्ञान' / इस प्रकार यहाँ षष्ठी विभक्ति के प्रयत्य लगाने .. से ज्ञान और आत्मा का अलग-अलग होने का आभास होता है। वस्तुतः इसमें षष्ठी विभक्ति का प्रयोग व्यवहार मात्र है। वास्तव में तो निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा ही ज्ञान है। ज्ञानादि गुणों के साथ आत्मा की अभिन्नता है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि जैसे 'घट का रूप' इसमें भेद-विकल्प से उत्पन्न हुआ है, उसी प्रकार 'आत्मा के गुण' या 'आत्मा का ज्ञान' इसमें भेद तात्विक नहीं है। घड़े का रूप या आकार, यह व्यवहारनय से बोला जाता है। यहाँ घड़ा और उसका रूप का आकार-इन दोनों में षष्ठी विभक्ति लगाकर भेद सूचित किया गया है, किन्तु निश्चयनय की दृष्टि से घड़ा और उसका रूप दोनों अभिन्न हैं, अलग-अलग नहीं हैं। इसी प्रकार आत्मा का ज्ञान-यह कहकर व्यवहार में किसी को समझाने के लिए 'आत्मा' और 'ज्ञान' बताने में आया है, किन्तु निश्चयरूप से तो आत्मा ही ज्ञान है। आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं है, अभिन्न ही है। इस बात को आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में पुष्ट किया है। वे कहते हैं कि 'शुद्ध नय' से आत्मा की अनुभूति ही ज्ञान की अनुभूति है। यह जानकर तथा आत्मा में आत्मा को निश्चल स्थापित करके आत्मा ज्ञानधन है, इस प्रकार जानना चाहिए। निश्चयनय से आत्मा ज्ञानादिमय है और व्यवहार से आत्मा ज्ञानादि गुण वाली है। वस्तुतः निश्चयनय मुख्य है, किन्तु पदार्थ को समझने के लिए व्यवहारनय की आवश्यकता पड़ती है। 214 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org