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________________ नंदीसूत्र के अनुसार जो ज्ञान सर्व द्रव्य, सर्व क्षेत्र, सर्व काल और सर्व भाव को युगपद (एक साथ) जानता, देखता है, वह केवलज्ञान है। आचारचूला से फलित होता है-केवलज्ञानी सब जीवों के सब भावों को जानता-देखता है। षट्खण्डागम में भी इसी प्रकार का सूत्र उपलब्ध है। जो मूर्त और अमूर्त सब द्रव्यों को सर्वथा, सर्वत्र और सर्वकाल में जानता-देखता है, वह केवलज्ञान है। आचार्य कुन्दकुन्द ने निश्चय और व्यवहार नय के आधार पर केवलज्ञान की परिभाषा दी है। उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानबिन्दु' में केवलज्ञान का लक्षण बताते हुए कहा है-'सर्व विषयं केवलज्ञानम्। सभी वस्तुओं के विषयों का ज्ञान करना केवलज्ञान है। बृहत्कल्पभाष्य में केवलज्ञान के पांच लक्षण बताये गए हैं-1. असहाय-इन्द्रिय मन निरपेक्ष, 2. एक-ज्ञान के सभी प्रकारों से विलक्षण, 3. अनिवरित व्यापार-अविरहित उपयोग वाला, 4. अनंत-अनंत ज्ञेय का साक्षात्कार करने वाला, 5. अविकल्पित-विकल्प अथवा विभाग रहित। तत्त्वार्थ भाष्य" में केवलज्ञान के दो भाग विस्तार से बताए गए हैं। वह सब भावों का ग्राहक, सम्पूर्ण लोक और अलोक को जानने वाला है। इससे अतिशयों का कोई ज्ञान नहीं है। ऐसा कोई श्रेय न हो जो केवलज्ञान का विषय न हो। आचार्य जिनभद्रगणि' ने केवल शब्द के पाँच अर्थ किए हैं, जिनकी आचार्य हरिभद्र, उपाध्याय यशोविजय एवं आचार्य मलधारी ने इस प्रकार व्याख्या की है 1. एक-केवलज्ञान मति आदि क्षायोपशमिक दोनों से निरपेक्ष है, अतः वह एक है। . . . 2. शुद्ध-केवलज्ञान होने के कारण केवलज्ञान सर्वथा निर्मल अर्थात् शुद्ध है। 3. सकल-उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार केवलज्ञान प्रथम समय में ही सम्पूर्ण रूप में उत्पन्न हो जाता है अतः सम्पूर्ण अर्थात् सकल है। आचार्य मलधारी के अनुसार सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों को ग्रहण करने के कारण केवलज्ञान को सकल कहा गया है। 4. असाधारण-केवलज्ञान के समान कोई दूसरा ज्ञान नहीं होता, अतः वह असाधारण है। 5. अनंत-केवलज्ञान अतीत, प्रत्युत्पन्न एवं अनागतकालीन अनंतज्ञेयों को प्रकाशित करने के कारण अनंत है। केवलज्ञान अप्रतिपाति है। अतः उसका अंत न होने से वह अनंत है। मलधारी हेमचन्द्र ने काल की प्रधानता से तथा आचार्य हरिभद्रसूरि ने ज्ञेयद्रव्य की अपेक्षा से केवलज्ञान की अनंतता का प्रतिपादन किया है। अपरिमित ठंडा एवं अपरिमित भाव को अवभासित करने का सामर्थ्य मात्र केवलज्ञान में है। अनंत द्रव्यों की अपेक्षा अनंत पदार्थों को क्षायोपशमिक ज्ञान भी जान सकते हैं पर प्रत्येक द्रव्य की अनंतानंत पदार्थों का साक्षात्कार करना केवलज्ञान का वैशिष्ट्य है। केवल शब्द अनंत-यह अर्थ एवं इसकी बहुविध दृष्टिकोणों से विभिन्न व्याख्याएं मात्र जैन साहित्य / में ही उपलब्ध होती हैं, अन्यत्र नहीं होती हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि अनन्तज्ञान सर्वज्ञता की भौतिक अवधारणा मुख्यता जैन का ही अभ्युपगम है। 212 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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