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________________ दोनों के बीच में समानता, साम्यता, साधर्म्य बनता है तो कई कारणों से उसमें विषमता, अन्तर, वैषम्यता देखने को मिलती है, जो निम्न है ___ मनःपर्यवज्ञान से मन की पर्यायों को जाना जाता है। इसमें यह स्पष्ट होता है कि मन प्रौद्गलिक है। अवधिज्ञान भी विषय रूपी द्रव्य है और मनोवर्गणा के सम्बन्ध भी रूपी है, द्रव्य है। इस प्रकार दोनों ज्ञानों का विषय एक ही बन जाता है। मनःपर्यवज्ञान अवधिज्ञान का एक भवान्तर भेद जैसा प्रतीत होता है। इसलिए आचार्य सिद्धसेन ने अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान को एक माना है। उनकी परम्परा को सिद्धान्तवादी आचार्यों ने मान्य नहीं किया। उमास्वाति ने संभवतः पहली बार अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान के भेद को दिखाने वाले विशुद्ध क्षेत्र, स्वामी और विषय रूप में हेतुओं का निर्देश किया है। अवधि एवं मनःपर्यव का अंतर भिन्न चार्ट से समझा जा सकता है अवधिज्ञान1. स्वामी-अविरत, सम्यग्दृष्टि, सर्वविरत 2. विषय-अशेष रूपी द्रव्य 3. क्षेत्र-पूरा लोक और अलोक में लोक प्रमाण असंख्येय खंड 4. काल-अतीत, अनागत काल 5. प्रत्येक रूपी द्रव्य के असख्येय पर्याय। मनःपर्यवज्ञान1. ऋद्धिसम्पन्न अप्रमत्त संयत 2. संज्ञी जीवों का मनोद्रव्य 3. मनुष्य क्षेत्र 4. पल्योपम के असंख्य भाग प्रमाण अतीत अनागत काल 5. मनःद्रव्यों के अनन्त पर्याय। जिस प्रकार एक फिजिसियन आँख, गला आदि शरीर के सभी अवयवों की जांच करता है, उसी प्रकार आँख, नाक, गला आदि की जाँच विशेषज्ञ डॉक्टर भी करता है। किन्तु दोनों के जाँच और चिकित्सा में अन्तर रहता है। एक ही कार्य होने पर भी विशेषज्ञ के ज्ञान की तुलना में वह नहीं आ सकता। __इसी प्रकार मनःपर्यवज्ञान की तुलना में साधारण अवधिज्ञान नहीं आ सकता। इन्हीं कारणों के कारण अवधि के बाद मनःपर्यवज्ञान कहा गया है। धर्म संगहणी, विशेषावश्यक भाष्य आदि में भी इनका साधर्म्य-वैधर्म्य मिलता है, जो यथार्थ है। केवलज्ञान की सर्वोत्तमता अतीत, अनागत और वर्तमान-तीनों कालों में विद्यमान वस्तुएँ और उनके सभी पर्याय के स्वरूप को जानने के कारण केवलज्ञान सर्वोत्तम है। उससे उसका उपन्यास अंत में किया है अथवा मनःपर्यवज्ञान का स्वामी अप्रमत्त यति है। उसी प्रकार केवलज्ञान के स्वामी भी अप्रमत्त यति है। इस प्रकार स्वामित्व की सादृश्यता के कारण भी मनःपर्यवज्ञान के बाद केवलज्ञान कहा है तथा सभी ज्ञानों के बाद अन्तिम केवलज्ञान होता है, अतः उसे अंतिम रखा गया है। 211 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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