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________________ 4. इन्द्रियवृत विभाग-श्रोत्रेन्द्रिय की उपलब्धि द्वारा होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान और शेष इन्द्रियों में अक्षरबोध को छोड़कर होने वाला ज्ञान मतिज्ञान है। 5. वल्क-मतिज्ञान वृक्ष की छाल समान है, क्योंकि यह कारण रूप है और श्रुतज्ञान डोरी के समान है, क्योंकि यह मतिज्ञान का कार्यरूप है। छाल से डोरी बनती है। छालरूप कारण होगा तो ही डोरी बनती है। उसी प्रकार मतिज्ञान का बोध होने के बाद ही श्रुतज्ञान की परिपाटी का अनुसरण होता है। 6. अक्षर-मतिज्ञान साक्षर और अनक्षर-दोनों प्रकार से होता है। उसमें अवग्रहज्ञानादि अनिर्देश्य सामान्यरूप से प्रतिभास होने से निर्विकल्प है। अनक्षर है, क्योंकि अक्षर के अभाव में शब्दार्थ की पर्यालोचना अशक्य है, अतः अक्षर और अनक्षरकृत भेद है। 7. मूक-मतिज्ञान स्व का बोध ही करवा सकता है अथवा मतिज्ञान अपनी आत्मा को बोध कराता है। अतः वह मूक है अर्थात् मूक के समान है, जबकि श्रुतज्ञान वाचातुल्य है, क्योंकि यह स्व और पर दोनों का बोध कराने में समर्थ है। विशेषावश्यक भाष्य में विस्तार से इसका वर्णन मिलता है। अवधि एवं मनःपर्यवज्ञान के भेद को दिखाने वाले हेतु एवं साधर्म्य ___अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान के भेद को दिखाने वाले हेतु एवं साधर्म्य निम्न प्रकार से दिखाया गया हैमनःपर्यवज्ञान और अवधिज्ञान में साधर्म्य अवधिज्ञान के समान मनःपर्यवज्ञान भी अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है। दोनों ही विकल प्रत्यक्ष हैं। ये दोनों ही ज्ञान रूपी पदार्थ को इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना साक्षात् करने की क्षमता रखते हैं। अरूपी पदार्थों-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश, काल और कर्मयुक्त जीव को साक्षात् करने में दोनों ही समर्थ नहीं हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान के साधर्म्य के सूचक चार हेतुओं का निर्देश किया है 1. छद्मस्थ साधर्म्य-अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान छद्मस्थ के ही होते हैं। अतः स्वामी की दृष्टि से उन दोनों में समानता है। 2. विषय साधर्म्य-दोनों ही ज्ञान का विषय केवल रूपी पदार्थ पुद्गल है। अरूपी पदार्थ उनके विषय नहीं बनते अतः दोनों में विषयकृत साम्य है। 3. भाव साधर्म्य-दोनों ही ज्ञान जैन कर्ममीमांसा के आधार पर अपने-अपने कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। 4. अध्यस्थ साधर्म्य-अध्यस्थ का अर्थ है-प्रत्यक्ष अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान दोनों ही विकल प्रत्यक्ष हैं। इन्हें अपने विषय को ग्रहण करने में इन्द्रिय और बाह्य उपकरणों की सहायता की अपेक्षा नहीं रहती। आत्मा स्वयं ही विषय को जान लेती है। ये दोनों पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान में साधर्म्य ऐसा वर्णन तत्त्वार्थ हरिभद्रीयवृत्ति, धर्मसंग्रहणी, विशेषावश्यक, आदि में भी मिलता है। 210 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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