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________________ अनुमान, अर्थापति आदि प्रमाणों का समावेश भी मतिश्रुत में किया है। ऐसा प्रयत्न वाचक से पूर्व किसी के द्वारा नहीं हुआ है। सिद्धसेनीय ज्ञान विचारणा-सिद्धसेन दिवाकर दार्शनिक तार्किक जगत् के दैदीप्यमान उज्ज्वल नक्षत्र हैं। उन्होंने अपनी तार्किक प्रतिभा के द्वारा ज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न विचारणीय मुद्दों को प्रस्तुत किया है। ये विक्रम की पांचवीं शताब्दी के विद्वान् माने जाते हैं। ज्ञान विचारणा के क्षेत्र में उन्होंने अपूर्व बातें प्रस्तुत की हैं। जैन परम्परा में उनसे पूर्व किसी ने शायद ऐसा सोचा भी नहीं होगा। सिद्धसेन दिवाकर के ज्ञानमीमांसा के मुख्य मुद्दों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है1. मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान का वास्तविक एक्य। इनके अनुसार मति-श्रुत अलग-अलग नहीं है। इन्हें दो पृथक् ज्ञान स्वीकार करने की कोई अपेक्षा नहीं है। 2. अवधिज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान में तत्त्वतः अभेद है। दिवाकरजी के अनुसार इन दो ज्ञानों को पृथक् स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है एवं ज्ञान के स्वीकार से भी प्रयोजन सिद्ध हो जाती है। 3. केवलज्ञान एवं केवलदर्शन में अभेद जैन परम्परा में मान्य केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप उपयोग को पृथक् स्वीकृति नहीं दी तथा उनके अभेद समर्थन में अपनी महत्त्वपूर्ण तार्किक युक्तियों को प्रस्तुत किया। 4. सिद्धसेन दिवाकर ने श्रद्धान रूप दर्शन एवं ज्ञान में अभेद को भी स्वीकार किया है। इन चार नवीन मुद्दों को प्रस्तुत करके सिद्धसेन दिवाकर ने ज्ञान के भेद-प्रभेद की प्राचीन रेखा पर तार्किक विचार का नया प्रकाश डाला है। इन नवीन विचारों पर जैन परम्परा में काफी ऊहापोह हुआ। दिवाकरश्री ने इन चार मुद्दों पर अपने स्वोपज्ञ विचार सन्मति तर्क प्रकरण एवं निश्चय द्वात्रिंशिका में व्यक्त किया है। न्यायावतार की रचना करके प्रमाण के क्षेत्र में भी अभिनव उपक्रम प्रस्तुत किया है। जिनभद्रीय ज्ञानमीमांसा-आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने ज्ञान विचार विकास के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। आगम परम्परा से लेकर उनके समय तक ज्ञानमीमांसा का जो स्वरूप उपलब्ध था, उसी का आश्रय लेकर क्षमाश्रमणजी ने अपने विशालकाय ग्रंथ विशेषावश्यक भाष्य में ज्ञान की विशद् मीमांसा की है। 'विशेषावश्यक भाष्य में ज्ञानपंचक की ही 840 गाथा है। इस भाष्य में जिनभद्रगणि ने पंचविध ज्ञान की आगमआश्रित तर्कानुसारिणी सांगोपांग चर्चा प्रस्तुत की है। क्षमाश्रमणजी की इस विकास भूमिका को तर्क उपजीवी आगम भूमिका कहना अधिक युक्तिसंगत है। उनका पूरा तर्क बल आगम सीमा में आबद्ध देखा जाता है। विशेषावश्यक भाष्य में ज्ञान से संबंधित सामग्री अत्यन्त व्यवस्थित रूप से गुम्फित कर दी है जो सभी श्वेताम्बर ग्रंथ प्रणेताओं के लिए आधारभूत बनी हुई है। जिनभद्र से उत्तरवर्ती आचार्यों की ज्ञानमीमांसा-श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के उत्तरवर्ती कुछ विशिष्ट आचार्यों का योगदान ज्ञान के क्षेत्र में रहा है। आचार्य अकलंक, विद्यानंद, हेमचन्द्र और . उपाध्याय यशोविजय उनमें प्रमुख हैं। ज्ञान विचार के विकास क्षेत्र में भट्ट अकलंक का प्रयल बहुमुखी है। ज्ञान संबंधी उनके तीन प्रयल विशेष उल्लेखनीय हैं। प्रथम तत्त्वार्थसूत्रानुसारी तथा दूसरी सिद्धसेन दिवाकर के न्यायावतार सूत्र का प्रतिबिम्बग्राही कहा जा सकता है। तीसरा प्रयत्न लघीयस्त्रयी और 198 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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